सुधारवा एटले पर न सुधरे त्यांसुधी पोते न सुधरवुं. एवा पराधीन भावमां धर्म होई शके नहि. कोई पर
पदार्थना भावनो हुं कर्ता नथी अने मारा भावनो कोई पर पदार्थ कर्ता नथी, पर पदार्थो गमे तेम हो अगर
वर्तो परंतु हुं मारा जेवा भाव करूं तेवा भाव गमे त्यारे थई शके छे–आम वस्तु स्वभावनी ओळखाणपूर्वक
पोताना भाव स्वाधीन राखवा ते धर्म छे. धर्म ते जीवनो पोतानो भाव
मारे आधीन छे. नेत्र मंद हो, ईन्द्रियो शिथिल हो, शरीर कृश हो त्यारे पण तेने लीधे मारूं ज्ञान मंद थई थई
जतुं नथी, केमके मारी अवस्थाथी मारूं होवापणुं छे, अन्यनी अवस्था माराथी जुदी छे. आ प्रमाणे स्व–काळथी
पोतानुं अस्तित्व जाणता ज्ञानी युगनुं परिवर्तन थतां पोताना धर्मनां स्वरूपमां परिवर्तन मानता नथी परंतु
पोते पोताथी सदा पूर्ण रहे छे. मारी अवस्था माराथी ज परिणमे छे, परज्ञेयनी अवस्था गमे ते थाओ तेनाथी
मारी अवस्था परिणमती नथी, बाह्य वस्तुओ बदली जवा छतां मारूं ज्ञान तो एकरूप रहे छे–ज्ञान परमां
चाल्युं जतुं नथी–एम–ज्ञानी जाणे छे. समय पलटातां बुद्धि पलटी जाय अथवा तो समयअनुसार धर्म पण
बदलतो रहे छे–ए वात जगतना गप्पां छे, तेम कदापि थतुं नथी.
जा एसा मूढमई णिरत्थया सा हु दे मिच्छा।।
आ मूढमति तुज छे निरर्थक, तेथी छे मिथ्या खरे. २६६.
करनारुं नहि होवाथी, ‘हुं आकाशना फूलने चूंटुं छुं’ एवा अध्यवसाननी माफक मिथ्यारूप छे, केवळ पोताना
अनर्थने माटे ज छे (अर्थात् मात्र पोताने ज नुकशाननुं कारण थाय छे, परने तो कांई करी शकतुं नथी.)
विचारथी बीजा जीवमां फेरफार थाय? कया काळे बीजा जीवना विचारनी असर आ जीव उपर थाय? कोई काळे
तेम थाय ज नहि. शुं वस्तुनुं स्वरूप कदी बदलाई जाय? वस्तुनो स्वभाव ए ज जैनधर्म छे–अने वस्तुनो
व्यक्तिए धर्म कर्यो नथी, परंतु धर्म तो स्वभावसिद्ध छे. दरेक वस्तु पोताना स्वभावथी स्वतंत्र अने परिपूर्ण
छे तेनो प्रदर्शक ते जैनधर्म; जैनधर्म एटले वस्तु धर्म; वस्तु धर्म एटले विश्वधर्म. आत्मानी एक समय पूरती
विकारी पर्यायने गौण करीने त्रिकाळी अखंड परिपूर्णज्ञायक स्वभावनुं दर्शन करवुं ते जैन–दर्शन छे. वस्तुप्रदर्शक
धर्मने काळनी मर्यादा होई शके नहि. सत्यधर्म