Atmadharma magazine - Ank 027
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४७२ : आत्मधर्म : ६५ :
शुं तुं कोईना पुण्यने फेरववा समर्थ छो? वळी देश उपर शासन कर्ता खराब होय त्यां सुधी मारे धर्म न थाय
एवी मान्यतानो अर्थ एम थयो के ज्यां सुधी सामी व्यक्ति तेना भाव न सुधारे त्यांसुधी मारे मारा भाव न
सुधारवा एटले पर न सुधरे त्यांसुधी पोते न सुधरवुं. एवा पराधीन भावमां धर्म होई शके नहि. कोई पर
पदार्थना भावनो हुं कर्ता नथी अने मारा भावनो कोई पर पदार्थ कर्ता नथी, पर पदार्थो गमे तेम हो अगर
वर्तो परंतु हुं मारा जेवा भाव करूं तेवा भाव गमे त्यारे थई शके छे–आम वस्तु स्वभावनी ओळखाणपूर्वक
पोताना भाव स्वाधीन राखवा ते धर्म छे. धर्म ते जीवनो पोतानो भाव
[अवस्था, पर्याय] छे. गमे तेवा
प्रतिकूळ संयोगो होवा छतां जीव धर्म करी शके छे केम के धर्म ते जीवने आधीन छे.
स्वाधीनताने भूली जाय छे. ज्ञानी जीव जाणे छे के आत्मामां समय समय पर ज्ञाननी जे अवस्था थाय छे ते
मारे आधीन छे. नेत्र मंद हो, ईन्द्रियो शिथिल हो, शरीर कृश हो त्यारे पण तेने लीधे मारूं ज्ञान मंद थई थई
जतुं नथी, केमके मारी अवस्थाथी मारूं होवापणुं छे, अन्यनी अवस्था माराथी जुदी छे. आ प्रमाणे स्व–काळथी
पोतानुं अस्तित्व जाणता ज्ञानी युगनुं परिवर्तन थतां पोताना धर्मनां स्वरूपमां परिवर्तन मानता नथी परंतु
पोते पोताथी सदा पूर्ण रहे छे. मारी अवस्था माराथी ज परिणमे छे, परज्ञेयनी अवस्था गमे ते थाओ तेनाथी
मारी अवस्था परिणमती नथी, बाह्य वस्तुओ बदली जवा छतां मारूं ज्ञान तो एकरूप रहे छे–ज्ञान परमां
चाल्युं जतुं नथी–एम–ज्ञानी जाणे छे. समय पलटातां बुद्धि पलटी जाय अथवा तो समयअनुसार धर्म पण
बदलतो रहे छे–ए वात जगतना गप्पां छे, तेम कदापि थतुं नथी.
एक जीव बीजा जीवने सुखी–दुःखी ईत्यादि कांई करी शकतो नथी, छतां हुं पर जीवने सुखी–दुःखी करी
शकुं एवी मान्यता ते चोक्कसपणे अज्ञानमय अध्यवसान छे, अने ते अध्यवसान पोतानी प्रयोजन भूत क्रिया
[–पर जीवनां सुख–दुःख ईत्यादि] नहि करी शकतुं होवाथी मिथ्या छे–आ संबंधमां भगवानश्री कुंदकुंदाचार्यदेव
श्री समयप्राभृतमां कहे छे के:–
दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि।
जा एसा मूढमई णिरत्थया सा हु दे मिच्छा।।
२६६।।
(गुजराती–हरिगीत)
करुं छुं दुःखीसुखी जीवने, वळी बद्ध–मुक्त करुं अरे!
आ मूढमति तुज छे निरर्थक, तेथी छे मिथ्या खरे. २६६.
अर्थ:– हे भाई! ‘हुं जीवोने दुःखी–सुखी करुं छुं, बंधावुं छुं तथा मुकावुं छुं’ एवी जे आ तारी मूढमति
(मोहित बुद्धि) छे ते निरर्थक होवाथी खरेखर मिथ्या (खोटी) छे.
श्री अमृतचंद्राचार्यदेवकृत टीका:– हुं पर जीवोने दुःखी करुं छुं, सुखी करुं छुं ईत्यादि तथा बंधावुं छुं, मुकावुं
छुं ईत्यादि जे आ अध्यवसान छे ते बधुंय, परभावनो परमां व्यापार नहि होवाने लीधे पोतानी अर्थक्रिया
करनारुं नहि होवाथी, ‘हुं आकाशना फूलने चूंटुं छुं’ एवा अध्यवसाननी माफक मिथ्यारूप छे, केवळ पोताना
अनर्थने माटे ज छे (अर्थात् मात्र पोताने ज नुकशाननुं कारण थाय छे, परने तो कांई करी शकतुं नथी.)
पर जीवोने हुं सुखी करूं तो मने धर्म थाय ए मान्यता मिथ्यात्व छे, केमके पोताना भावने लीधे पर
जीव सुखी थतां ज नथी. कोई जीवना भावनुं फळ बीजा कोईमां आवतुं ज नथी. कया काळे एक जीवना
विचारथी बीजा जीवमां फेरफार थाय? कया काळे बीजा जीवना विचारनी असर आ जीव उपर थाय? कोई काळे
तेम थाय ज नहि. शुं वस्तुनुं स्वरूप कदी बदलाई जाय? वस्तुनो स्वभाव ए ज जैनधर्म छे–अने वस्तुनो
स्वभाव त्रणेकाळ एकरूप छे तेथी जैनधर्मने काळनी मर्यादामां केद करी शकाय नहि.
जैनदर्शन ए कोई कल्पना नथी, कोई अमुक काळ माटे प्रवर्तेलो ए मार्ग नथी परंतु जैनदर्शन ए
वस्तुस्वभाव प्रदर्शक धर्म छे, वस्तुओ अनादि अनंत छे तेथी तेनो प्रदर्शक धर्म अनादि–अनंत छे. कोई
व्यक्तिए धर्म कर्यो नथी, परंतु धर्म तो स्वभावसिद्ध छे. दरेक वस्तु पोताना स्वभावथी स्वतंत्र अने परिपूर्ण
छे तेनो प्रदर्शक ते जैनधर्म; जैनधर्म एटले वस्तु धर्म; वस्तु धर्म एटले विश्वधर्म. आत्मानी एक समय पूरती
विकारी पर्यायने गौण करीने त्रिकाळी अखंड परिपूर्णज्ञायक स्वभावनुं दर्शन करवुं ते जैन–दर्शन छे. वस्तुप्रदर्शक
धर्मने काळनी मर्यादा होई शके नहि. सत्यधर्म