वस्तुस्वभावना आधारे छे, अनुभव ते जैनधर्मनो पायो छे, युक्तिवाद
थईने चारगतिमां रोकाई जवाना...
तत्त्वज्ञानीओ नीचे प्रमाणे करे छे–
प्रकारना अशुद्ध भाव ते संसारनुं कारण छे अर्थात् अधर्म छे. स्वाश्रयभाव पोताना स्वभावना लक्षे थाय छे,
अने पराश्रयभाव हमेशा परनुं अवलंबन मागे छे. जेमके कोई जीवने मारवानो भाव थयो ते तो पर जीवनुं
लक्ष कर्या वगर थाय नहि, तेम कोईने सगवड आपवानो भाव पण पर तरफना लक्ष वगर थाय नहि, माटे ते
बंने
थाय नहि माटे सौथी पहेलांं पोताना स्वरूपनी ओळखाण द्वारा सम्यग्दर्शनरूपी धर्म करवानुं जैनदर्शन फरमावे
पदार्थनुं करी शकता नथी, माटे तुं पर पदार्थोनुं लक्ष छोडी दईने तारा स्वभावमां लक्ष कर–ए ज सुखनो उपाय
अर्थात् धर्म छे. कोई जीवना भावनुं फळ कोईमां आवतुं ज नथी. कया काळे एक जीवना विचारथी बीजा जीवनुं
कार्य थाय? कया काळे बीजा जीवना विचारथी आ जीवनुं कार्य थाय? एक जीवने एवो विचार आवे के ‘हुं
आखा जगतने सुखी करुं’ –परंतु जगतना सौ जीवो तो पोतपोताना परिणाम अनुसार सुखी के दुःखी स्वयं
थाय छे, त्यां आ जीवना विचारनी असरथी तो कोई जीव सुखी थई जता नथी, माटे ज परने सुखी के दुःखी
करवानो अज्ञान जनित भाव ते मिथ्या छे. आ जीव साक्षात् भगवान पासे बेठो होय तो ते भगवाननी
असरथी धर्म समजी जाय–ए वात पण खोटी छे. भगवानने पूर्वे ‘जगतने धर्म पमाडवानी भावना’ हती, ते
स्वभावनी स्वतंत्रतानी समजण ते ज त्रणे काळनो एक धर्म छे. आ समजण थतां अनंतानंत पर द्रव्यो
उपरथी अहंकार अने सुखबुद्धि टळी जाय छे तथा पोताना स्वभावनी अनंती द्रढता थाय छे तेनुं फळ तत्काळे
अनंत शांति छे, अने ते ज मुक्तिनुं कारण छे.
भावना होवा छतां सामो जीव तेना कारणे अज्ञानपणाने लीधे दुःखी थतो जोवामां आवे छे; अने आ जीवने
सामाने दुःखी करवानो भाव होवा छतां सामो जीव पोताना ज्ञानजनित परिणामने लीधे सुखी थतो देखाय छे;
तेथी एक जीवना परिणाम बीजामां अकिंचित्कर छे. आ संबंधमां नीचे प्रमाणे चौभंगी थई शके छे;
अने (४) पर जीवने ‘हुं आ जीवने मुक्त करुं’ एवो अध्यवसान भाव होवा छतां आ जीव पोताना