Atmadharma magazine - Ank 027
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: ६६ : आत्मधर्म : पोष : २४७२ :
त्रिकाळ एक ज होय, तेथी कोई वस्तुने के तेना धर्मने कोई परपदार्थनी असर न होय. जैनधर्मनुं कथन त्रिकाळी
वस्तुस्वभावना आधारे छे, अनुभव ते जैनधर्मनो पायो छे, युक्तिवाद
[अनेकान्त] ते जैनधर्मनो आत्मा छे.
स्वभाव–आश्रित प्रवर्ततो सत्यधर्म कोईथी रोकी शकाय तेम नथी, जे तेने रोकवा मागशे ते पोते ज परभावरूप
थईने चारगतिमां रोकाई जवाना...
जैनधर्म स्वाधीन छे केमके ते वस्तुना स्वाधीन स्वरूपने बतावनार छे. लोकमां पण कहेवत छे के–
‘स्वाधीनता जेवुं सुख नथी, ने पराधीनता जेवुं दुःख नथी.’ स्वाधीनता अने पराधीनतानो साचो अर्थ
तत्त्वज्ञानीओ नीचे प्रमाणे करे छे–
विश्वमां रहेला जीवो स्वाश्रय अने पराश्रय एम बे प्रकारना भावो करी शके छे, तेमां स्वाश्रये थतो
भाव ते शुद्ध छे अने ते ज धर्म छे. पराश्रये थता भाव अशुद्ध छे तेना बे प्रकार छे–शुभ अने अशुभ; आ बंने
प्रकारना अशुद्ध भाव ते संसारनुं कारण छे अर्थात् अधर्म छे. स्वाश्रयभाव पोताना स्वभावना लक्षे थाय छे,
अने पराश्रयभाव हमेशा परनुं अवलंबन मागे छे. जेमके कोई जीवने मारवानो भाव थयो ते तो पर जीवनुं
लक्ष कर्या वगर थाय नहि, तेम कोईने सगवड आपवानो भाव पण पर तरफना लक्ष वगर थाय नहि, माटे ते
बंने
[शुभ–अशुभ] भावो पराधीन–विकारी छे. ‘जैन’ पाप करवानी तो बधा ज जीवोने मनाई करे छे, अने
बधा पापोमांथी पोताना स्वरूपनी भ्रमणा ते सौथी मोटुं पाप छे, ते महापाप टाळ्‌या सिवाय कोई जीवने धर्म
थाय नहि माटे सौथी पहेलांं पोताना स्वरूपनी ओळखाण द्वारा सम्यग्दर्शनरूपी धर्म करवानुं जैनदर्शन फरमावे
छे. दर्शनविशुद्धि ते जैनधर्मनुं मूळ छे.
श्रीसमयसारनी आ २६६ मी गाथामां श्रीकुंदकुंदाचार्यदेव एम समजावे छे के हे भाई! तारा भावनी
असर पर उपर थती नथी तेमज परना भावनी तारा उपर असर थती नथी. आ रीते कोई पदार्थ बीजा
पदार्थनुं करी शकता नथी, माटे तुं पर पदार्थोनुं लक्ष छोडी दईने तारा स्वभावमां लक्ष कर–ए ज सुखनो उपाय
अर्थात् धर्म छे. कोई जीवना भावनुं फळ कोईमां आवतुं ज नथी. कया काळे एक जीवना विचारथी बीजा जीवनुं
कार्य थाय? कया काळे बीजा जीवना विचारथी आ जीवनुं कार्य थाय? एक जीवने एवो विचार आवे के ‘हुं
आखा जगतने सुखी करुं’ –परंतु जगतना सौ जीवो तो पोतपोताना परिणाम अनुसार सुखी के दुःखी स्वयं
थाय छे, त्यां आ जीवना विचारनी असरथी तो कोई जीव सुखी थई जता नथी, माटे ज परने सुखी के दुःखी
करवानो अज्ञान जनित भाव ते मिथ्या छे. आ जीव साक्षात् भगवान पासे बेठो होय तो ते भगवाननी
असरथी धर्म समजी जाय–ए वात पण खोटी छे. भगवानने पूर्वे ‘जगतने धर्म पमाडवानी भावना’ हती, ते
भावनाथी बीजाने फायदो थाय नहि, पोताना शुभभावनुं फळ पोतामां आवे–परमां न आवे. आवी जे वस्तु
स्वभावनी स्वतंत्रतानी समजण ते ज त्रणे काळनो एक धर्म छे. आ समजण थतां अनंतानंत पर द्रव्यो
उपरथी अहंकार अने सुखबुद्धि टळी जाय छे तथा पोताना स्वभावनी अनंती द्रढता थाय छे तेनुं फळ तत्काळे
अनंत शांति छे, अने ते ज मुक्तिनुं कारण छे.
एक जीवना भाव बीजा जीव उपर असर करी शकता नथी, केमके दरेक जीव पोतापणे होवा स्वरूप
(अस्ति) छे अने परपणे न होवा स्वरूप (नास्ति) छे. आम होवाथी, आ जीवने परने सुखी करवानी
भावना होवा छतां सामो जीव तेना कारणे अज्ञानपणाने लीधे दुःखी थतो जोवामां आवे छे; अने आ जीवने
सामाने दुःखी करवानो भाव होवा छतां सामो जीव पोताना ज्ञानजनित परिणामने लीधे सुखी थतो देखाय छे;
तेथी एक जीवना परिणाम बीजामां अकिंचित्कर छे. आ संबंधमां नीचे प्रमाणे चौभंगी थई शके छे;
(१) आ जीवने ‘हुं पर जीवने बांधुं’ एवो अध्यवसान भाव (रागवाळी चीकाशबुद्धि) होवा छतां
सामो जीव पोताना वीतराग परिणामने लीधे बंधातो नथी; माटे अध्यवसान मिथ्या छे.
(२) आ जीवने ‘हुं पर जीवने मुक्त करुं’ एवो अध्यवसान भाव होवा छतां सामो जीव पोताना
सराग परिणामने लीधे मुकातो नथी; माटे अध्यवसान मिथ्या छे.
(३) पर जीवने ‘हुं आ जीवने बांधुं’ एवो अध्यवसान भाव होवा छतां आ जीव पोताना वीतराग
परिणामने लीधे बंधातो नथी; माटे अध्यवसान मिथ्या छे;
अने (४) पर जीवने ‘हुं आ जीवने मुक्त करुं’ एवो अध्यवसान भाव होवा छतां आ जीव पोताना