Atmadharma magazine - Ank 027
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४७२ : आत्मधर्म : ६७ :
सराग परिणामोने लीधे मुक्त थतो नथी माटे अध्यवसान मिथ्या छे;
परवस्तुमां कांई पण करवानी बुद्धिरूप आ अज्ञानजनित परिणाम ते जीवने पोताने ज बंधननुं कारण
छे, अने ज्ञानजनित परिणाम ते ज मुक्तिनुं कारण छे, माटे हे भाई! मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, अने
मिथ्याचारित्रना रागपरिणामथी ज जीवो बंधाय छे अने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप वीतराग
परिणामथी ज जीवो मुक्त थाय छे तो ते जीवने बंधन थवामां के मुक्त थवामां बीजा प्राणीना भावोए शुं कर्युं?
कांई ज नथी कर्युं, आम जाणीने पर पदार्थ उपरथी लक्ष खेंचीने स्वभाव तरफ वळवुं ते धर्म छे. आवुं ज त्रणे
काळनुं वस्तुस्वरूप छे, आ वस्तु स्वरूपथी विपरीत अन्य कोई पण मान्यताथी कदी धर्म थतो नथी.
आ जीव सामा जीवने सुखी करवानो अगर तो मुक्त करवानो अध्यवसान करे, परंतु सामो जीव
पोताना अज्ञानभावे दुःखी थईने बंधन करी रह्यो होय त्यां बीजाना भाव शुं काम आवे? माटे हे भाई! हुं पर
जीवोने सुखी–दुःखी करुं एवी तारी भावना निरर्थक छे, अज्ञानमय छे; परने तो ताराथी कांई ज थई शकतुं
नथी ऊलटी ते भावना तने पोताने अनर्थ कर्ता छे; हुं पर जीवनुं करी शकुं एवी मिथ्या मान्यतावाळो जीव
पोताना शुद्ध चैतन्य प्राणोनो अज्ञानरूपी तीखां शस्त्र वडे घात करे छे, केमके ते जीवे पोताने कर्ता स्वरूप मान्यो
पण ज्ञायक स्वरूप न मान्यो–ते मान्यता ज आत्माना शुद्ध भावने हणनारी छे.
गमे ते संयोग वखते पण एक तत्त्व बीजा तत्त्वने कांई करवा समर्थ नथी. पोतानुं चैतन्यस्वरूप पोतामां छे.
पोतानो चैतन्य स्वभाव चूकीने परमां सारूं मान्युं ते ज हिंसा अने अनंतु पाप छे. समजण ए ज धर्म छे अने
अज्ञान ए ज संसार छे. अनादि–अनादिकाळथी यथार्थ चैतन्यस्वरूपने जाण्युं नथी अने वस्तु स्वरूप समज्या विना
कदी भवथी निवेडा आवे तेम नथी, माटे हे जीव! चैतन्य स्वभावनी रुचि कर, तेनुं भान कर अने ए चैतन्य
स्वभावना जोरे रागादि सामे एकलो झूर...तारा बेहद स्वभावने नुकशान करवा कोई पर द्रव्य समर्थ नथी. परथी
धर्म नथी तेम ज नुकशान पण नथी. माटे मफतनो परनो अहंकार कर मां! परथी धर्म मानवो ते अज्ञान छे. दरेक
जीव–ज्ञानी के अज्ञानी सौ स्वतंत्र छे, कोईना अभिप्राय फेरवी शकवा कोई बीजो समर्थ नथी. अज्ञानीने नुकशान
तेना अज्ञानभावनुं ज छे, परनुं नहि. पोताना स्वभावनी शंकाए पोताने नुकशान छे अने पोताना स्वभावनी
निःशंकताए पोताने लाभ छे. निज स्वरूपनी रुचि, भान, निःशंकता अने ते–रूप परिणमन ए ज धर्म छे.
‘धर्म’ नी व्याख्या करतां भगवानश्री कुंदकुंदाचार्यदेव भावपाहुडमां कहे छे के––
पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनैशासने भणितम्।
मोह क्षोभ विहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः।। ८३।।
अर्थ:– जिनशासन विषे जिनेन्द्रदेवे एम कह्युं छे के––पूजादिक तथा व्रत सहितपणुं छे ते तो पुण्य छे, पण
मोह (मिथ्यादर्शन) अने क्षोभ (चारित्रमोह) रहित जे आत्मानुं परिणमन ते धर्म छे.
जैनधर्म ए तो वीतराग–शासन छे, ए कोई वेश के वाडो नथी, वीतरागता ए ज जैनधर्म छे.
जैनधर्ममां रागने स्थान नथी, पछी ते राग साक्षात् भगवान उपरनो होय तो पण जे राग छे ते जैनशासन
नथी. साक्षात् भगवान उपरनो राग पण धर्म नथी–त्यारे पछी पर जीवोने बचाववानो के मारवानो जे शुभ–
अशुभ राग ए तो धर्म होय ज केम?
प्रश्न:– धर्म तो बे प्रकारना छे ने? एक मुनिधर्म अने बीजो श्रावकधर्म. तेमां श्रावकने तो पर जीवने
दुःखी देखीने दया आवे ने! माटे पर जीवनी दया ते श्रावकधर्म तो खरो ने?
उत्तर:– ना, धर्मना बे प्रकार खरेखर छे ज नहि. मुनि अने श्रावक ए बे प्रकार तो रागनी अपेक्षाए
छे, ते बंने दशामां जेटलो राग छे तेटलो धर्म नथी पण आत्मभान सहित जेटलो वीतराग भाव करे तेटलो ज
धर्म छे, अने वीतराग भाव तो त्रणेकाळ एक ज प्रकारनो छे तेथी धर्म त्रिकाळ एकरूप छे. त्रणेकाळना अनंत
तीर्थंकरोनी परुपणा धर्मनुं स्वरूप एक ज प्रकारे कहे छे. सुखडी अथवा तो लाडवो जेम त्रणे काळ घी, गोळ
अने लोटनो ज थाय छे, परंतु तेमां घीने बदले पाणी, गोळने बदले कांकरा अने लोटने बदले धूळ कोई काळे
पण वपराता नथी तेम आत्मानी मोक्षदशा प्रगट करवानो मार्ग त्रणेकाळे सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप ज छे;
कोई काळे तेना सिवाय बीजा उपायथी मोक्ष थतो ज नथी. अने प्रश्नमां एम पण कह्युं छे के ‘परजीवनी दया
पाळवी ते श्रावकधर्म खरोने?’ ते वात पण बराबर नथी; केमके प्रथम तो जीवने जे राग आवे छे ते राग पर
जीवने दुःखी देखीने आवतो नथी परंतु पोतानी नबळाईथी ते राग थाय छे माटे पोताने ते