मिथ्याचारित्रना रागपरिणामथी ज जीवो बंधाय छे अने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप वीतराग
परिणामथी ज जीवो मुक्त थाय छे तो ते जीवने बंधन थवामां के मुक्त थवामां बीजा प्राणीना भावोए शुं कर्युं?
काळनुं वस्तुस्वरूप छे, आ वस्तु स्वरूपथी विपरीत अन्य कोई पण मान्यताथी कदी धर्म थतो नथी.
जीवोने सुखी–दुःखी करुं एवी तारी भावना निरर्थक छे, अज्ञानमय छे; परने तो ताराथी कांई ज थई शकतुं
नथी ऊलटी ते भावना तने पोताने अनर्थ कर्ता छे; हुं पर जीवनुं करी शकुं एवी मिथ्या मान्यतावाळो जीव
पोताना शुद्ध चैतन्य प्राणोनो अज्ञानरूपी तीखां शस्त्र वडे घात करे छे, केमके ते जीवे पोताने कर्ता स्वरूप मान्यो
पण ज्ञायक स्वरूप न मान्यो–ते मान्यता ज आत्माना शुद्ध भावने हणनारी छे.
कदी भवथी निवेडा आवे तेम नथी, माटे हे जीव! चैतन्य स्वभावनी रुचि कर, तेनुं भान कर अने ए चैतन्य
स्वभावना जोरे रागादि सामे एकलो झूर...तारा बेहद स्वभावने नुकशान करवा कोई पर द्रव्य समर्थ नथी. परथी
धर्म नथी तेम ज नुकशान पण नथी. माटे मफतनो परनो अहंकार कर मां! परथी धर्म मानवो ते अज्ञान छे. दरेक
जीव–ज्ञानी के अज्ञानी सौ स्वतंत्र छे, कोईना अभिप्राय फेरवी शकवा कोई बीजो समर्थ नथी. अज्ञानीने नुकशान
तेना अज्ञानभावनुं ज छे, परनुं नहि. पोताना स्वभावनी शंकाए पोताने नुकशान छे अने पोताना स्वभावनी
निःशंकताए पोताने लाभ छे. निज स्वरूपनी रुचि, भान, निःशंकता अने ते–रूप परिणमन ए ज धर्म छे.
नथी. साक्षात् भगवान उपरनो राग पण धर्म नथी–त्यारे पछी पर जीवोने बचाववानो के मारवानो जे शुभ–
अशुभ राग ए तो धर्म होय ज केम?
धर्म छे, अने वीतराग भाव तो त्रणेकाळ एक ज प्रकारनो छे तेथी धर्म त्रिकाळ एकरूप छे. त्रणेकाळना अनंत
तीर्थंकरोनी परुपणा धर्मनुं स्वरूप एक ज प्रकारे कहे छे. सुखडी अथवा तो लाडवो जेम त्रणे काळ घी, गोळ
अने लोटनो ज थाय छे, परंतु तेमां घीने बदले पाणी, गोळने बदले कांकरा अने लोटने बदले धूळ कोई काळे
कोई काळे तेना सिवाय बीजा उपायथी मोक्ष थतो ज नथी. अने प्रश्नमां एम पण कह्युं छे के ‘परजीवनी दया
पाळवी ते श्रावकधर्म खरोने?’ ते वात पण बराबर नथी; केमके प्रथम तो जीवने जे राग आवे छे ते राग पर
जीवने दुःखी देखीने आवतो नथी परंतु पोतानी नबळाईथी ते राग थाय छे माटे पोताने ते