आववो जोईए, परंतु तेम कदी थतुं ज नथी. केमके पर जीवना कारणे राग थतो नथी. वळी सामो जीव दुःखी
होय त्यां सुधी तेना उपरनो राग टळे नहि एम पण नथी. सामो जीव दुःखी होवा छतां पोते पोताना
ज्ञायकस्वभावमां रहीने वीतराग थई शके छे. जीवने अस्थिरता वखते बीजा जीवने दुःखी न करवाना शुभभाव
आवे छे ते शुभभाव परने माटे नथी परंतु पोतानुं जोडाण तीव्ररागमां न थई जाय ते माटे–तीव्र अशुभथी
बचवा माटे पोते शुभराग करे छे, त्यां जेटलो राग टळ्यो तेटलो पोताने लाभ छे अने जे कांई राग रह्यो छे
तेनुं पोतानी अवस्थामां नुकशान छे, अने संपूर्ण ज्ञानस्वभावमां रागनो सर्वथा अभाव छे एवा स्वभावनी
प्रतीत अने स्थिरताना जोरे ते रहेलो राग पण अल्पकाळमां टळीने मुक्त दशा थई जवानी..!
मारे कोई पण पर साथे संबंध छे के विकार वखते मारूं ज्ञान पण विकाररूप थई जाय छे–आवी मान्यतारूप
अज्ञान भावथी ज जीव बंधाय छे, परंतु कोई पर जीव तेने मुक्ति के बंधन करी शकतो नथी. आ वात ज्यांसुधी
बराबर न समजाय त्यांसुधी प्रथम ज आ निर्णय करवानो प्रयत्न वारंवार कर्या करवो. आमां आचार्य
भगवाने बंधभाव अने अबंध भावने ओळखावीने भेदज्ञान कराव्युं छे. पोताना अबंध स्वभावने लक्षमां
लई साची श्रद्धा–साचुं ज्ञान अने स्वरूप–रमणता करी जीव मुक्तदशारूपे परिणमे छे.
केमके कोई जीवनी असर पर जीवो उपर पडे ज नहि. त्यारे पछी ए प्रश्न थाय छे के आचार्योए शा माटे शास्त्रो
रच्यां? तेनो उत्तर आ छे––आचार्य भगवंतो आत्म स्वरूप रमणतामां सातमा–छठ्ठा गुणस्थाने झुलता
हता...ज्यारे पोते पोताना स्वरूपानुभवमां निर्विकल्पपणे टकी नथी शकता त्यारे तेमने विकल्प ऊठे छे अने ते
छठ्ठी भूमिकाने योग्य मुख्यत: शास्त्ररचनानो विकल्प ऊठे छे केमके आचार्यदेवने पोतानुं ज्ञान कायम टकावीने
अत्रूट ज्ञानधाराथी केवळज्ञान प्रगटाववानी भावना छे, तेथी निमित्तरूपे बाह्यमां पण ज्ञानप्रवाहने अविच्छिन
टकावी राखवाना हेतुरूप शास्त्रनी रचनानो विकल्प ऊठे छे अने तेथी शास्त्र रचना थाय छे. जे जीव शास्त्रना
भाव समजे छे ते भक्तिथी एम कहे छे के अहो! आचार्य भगवंतोए शास्त्र रचीने महान उपकार कर्यो–आम
फेरफार थयो ज नथी. परंतु जे जीवो पोते योग्यतावाळा हता तेओए पोताना भावथी कषाय घटाडयो अने
तेथी तेओ पशु हिंसाना भाव करता अटक्या; भगवान महावीरे तेमने अटकाव्या नथी. परंतु ते जीवोने
भगवाननो उपदेश मात्र निमित्तरूप थयो होवाथी, ते उपदेशनी हाजरीनुं ज्ञानमात्र कराववा माटे निमित्तथी
एम कथन करवामां आवे छे के महावीर भगवानना उपदेशथी पशुहिंसा अटकी; परंतु एक जीव बीजा जीवना
पुरुषार्थ वडे पोताना आधारे धर्मरूप थाय छे. आत्मानो धर्म आत्मामां ज छे, कोई परना आधारे आत्मानो
धर्म नथी; आ आत्मा पोते ज धर्म स्वरूप होवा छतां पोताने पोताना स्वरूपनी ज अनादिथी खबर नथी.
श्रद्धा नथी तेथी ज तेने पोतानो धर्म प्रगट अनुभवमां आवतो नथी. पोताना धर्म स्वरूपमां शंका–विपर्यय के
अनिर्णय ए ज अधर्म छे अने ते अधर्मनुं फळ संसार छे; ते अधर्मने टाळवा माटे अनंत ज्ञानीओए कहेलो
ओळखाण करे ते समय आत्मानो ‘युगधर्म’ छे अर्थात् स्व–पर्याय छे. ‘युग’ =काळ, पर्याय, हालत. ‘धर्म’
=स्वभाव. पोतानी जे स्वभावरूप दशा ते ज पोतानो ‘युगधर्म’ छे, काळना कोई परिणमन साथे आत्माना
धर्मनो संबंध नथी..