ATMADHARMA With the permissdon of the Baroda Govt. Regd No. B, 4787
order No. 30/24 date 31-10-44
सम्यग्दर्शन – धर्म
प्रश्न:–आप तो हंमेशा सम्यग्दर्शननी
ज वात करो छो?
उत्तर:–सम्यग्दर्शन ए ज मोक्षनुं कारण
छे. सम्यग्दर्शन कहे छे के “मने धारण कर्या
पछी तारी ईच्छा हशे तोपण ताराथी मलिनता
राखी शकाशे नहीं, मोक्षे आववुं ज पडशे!”
मोक्षनुं पहेलुं ज पगथियुं सम्यग्दर्शन छे, ते
विनाना बधा हवाई किल्ला छे–कल्पना छे; माटे
प्रथम सम्यग्दर्शन ए ज कर्तव्य छे.
(पानुं २२६–२२७)
सम्यग्दर्शननुं स्वरूप जाण्या विना,
दुनियाए तेने घरघरनी चीज करी नांखी छे,
मोटो भाग वीतरागनो मार्ग ज भूली गया
छे. देह–मन–वाणीनी क्रिया रहित भगवान
आत्मा स्वाभाविक गुणरत्नोनी खाण छे–ते
अंदर लक्ष करे तो गुणो प्रगटे. ज्यां होय त्यां
खोदे तो नीकळेने! माटीनी खाण गमे तेटली
खोदे तोपण तेमांथी अनाज नीकळे नहीं, तेम
पुण्य–पापना विकारनी खाण अनादिथी खोदे
छे, पण ते तो राग छे–विकार छे तेमांथी
अविकारी धर्म प्रगटे नहीं. मावो जोईतो होय
तो अफीणवाळानी दुकाने न पूछे पण कंदोईने
त्यां ज जाय, एमां खबर पडे, पण धर्म कयां
मळे? धर्मनी दुकान कयां छे? तेनी खबर न
मळे. कोई स्थानमां, वाणीमां के चोपडामां धर्म
नथी, धर्म तो आत्मामां छे, बीजे कयांय नथी.
आत्मा ज अंदर स्वाभाविक गुणनो ढगलो छे,
पण तेनी खबर नथी तेथी बहारमां मान्युं छे
के–दया करी अथवा पर जीवने बचावी दीधो
एमां धर्म थई गयो; पण एवा दयादिना
शुभभाव तो अनंतवार करी चूकयो, परंतु
आत्माने ओळख्यो नहीं, अने आत्माने
ओळख्या वगर धर्म थयो नहि (पानुं २२०–२२१)
श्री नियमसार–पर–प्रवचनो भाग–१
पृष्ठ ३२०–किंमत–रूा. १–८–०
नयो शा माटे?
बे अपेक्षाओ बराबर समजवी जोईए, बे अपेक्षाओ उपर
आखा जैनशासननुं कथन छे. जैनशासन एटले वस्तुस्वभाव,
वस्तुस्वभाव बे अपेक्षा द्वारा समजावी शकाय छे. त्रिलोकनाथ
तीर्थंकर देवाधिदेव सर्वज्ञ भगवाने पोताना पूर्ण ज्ञानमां जेवो पूरो
वस्तुस्वभाव जाण्यो तेवो ज स्वभाव कह्यो छे, सांभळनारनुं ज्ञान
ऊणुं छे पण वस्तुस्वभाव पूरो छे; ऊणा ज्ञानमां पूरो
वस्तुस्वभाव एक साथे आवी शकतो नथी तेथी अपेक्षा द्वारा
वस्तुना पडखांने मुख्य–गौण करीने समजाववामां आवे छे. जो
वस्तुस्वभावमां परिपूर्णता न होय तो मुख्य–गौण करीने पूर्णता
समजाववानुं होय नहि अने जो ज्ञान पूरुं होय तोपण भेद पाडीने
समजाववुं पडे नहि, केमके पूरा ज्ञानमां तो पूरी वस्तुनुं [द्रव्य–
पर्यायनुं] ज्ञान एक साथे होय छे, पण ज्ञान अधुरुं छे एटले ते
द्रव्य–पर्यायस्वरूप पुर्ण वस्तुने एक साथे लक्षमां लई शकतुं नथी,
माटे (नयद्वारा) मुख्य–गौण करीने समजाववुं पडे छे.
(पानुं २९६–२९७)
निश्चयनय अने व्यवहारनय
भगवाननो उपदेश बे अपेक्षासहित छे, एकांत उपदेश
भगवाननो नथी. निश्चयद्रष्टिनो विषय अखंड छे, तेना विषयमां
व्यवहार के व्यवहारना विषयरूप खंड, भेद, अवस्था आवतां नथी;
परंतु व्यवहार अने तेनो विषय अभावरूप नथी, वर्तमान पूरता
छे खरा. व्यवहारनी ज द्रष्टिने मिथ्याद्रष्टि–खोटी द्रष्टि कही छे केमके
व्यवहारनय एक वर्तमान अंशने ज लक्षमां ल्ये छे अने आखो
त्रिकाळी पदार्थ ते लक्षमां लेतो नथी, अने जे आखा त्रिकाळी द्रव्यने
प्रतीतमां न ल्ये ते द्रष्टि साची नथी; माटे निश्चयद्रष्टिने मुख्य करी
अखंड त्रिकाळी पदार्थने लक्षमां लेवो–ते ज सम्यग्दर्शन छे.
अहीं प्रथम नयोनुं स्वरूप बतावीने पछी तेनुं लक्ष
छोडावीने अखंड वस्तु तरफ प्रौढ विवेक वडे लक्ष करावे छे. अखंड
वस्तुने लक्षमां लेवी तेने ‘प्रौढ विवेक’ कह्यो छे पण जेनी पर्याय
उपर ज द्रष्टि छे ते व्यवहारमूढ अर्थात् अविवेकी छे...प्रौढ विवेक
एटले शुं? निश्चय–व्यवहार बंने नयोने जाणीने पछी जे निश्चयनां
अखंड विषय तरफ ढळे छे ते प्रौढविवेकी छे; ज्ञानमां बन्ने नयोनो
स्वीकार करीने निश्चयमां आरूढ छे. व्यवहारनय छे, तेने न माने
तो विवेक कहेवाय नहि अने जो व्यवहारमां ज रोकाई जाय तोपण
ते निश्चयनयमां अनारूढ वर्तता थका अविवेकी छे. नयोनुं जे ज्ञान
करावे छे ते भेदनुं लक्ष राखवा माटे नहि, पण भेद रहित
अभेदस्वरूप छे ते तरफ लक्ष करवा माटे कहेवाय छे.
(पानुं ३०४–३०प)
(नियमसार – प्रवचनोमांथी)
मुद्रक : चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय, दासकुंज, मोटा आंकडिया, काठियावाड.
प्रकाशक : जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, मोटा आंकडिया ता. प – २ – ४६