तरफ लक्ष करीने न परिणम्यो (अर्थात् उदयमां न जोडाणो) त्यारे कर्मनी अवस्थाने निर्जरा कहेवाणी. जीव
स्वसन्मुख परिणम्यो त्यारे भले कर्म उदयमां होय पण जीवना ते वखतना परिणमनमां कर्मना निमित्तनी
नास्ति छे. पोते स्वमां भळ्यो अने कर्म तरफ न भळ्यो ते ज कर्मनी नास्ति अर्थात् उदयनो अभाव छे.
आत्मामां एक समयनी स्वसन्मुख दशामां पांचे समवाय आवी जाय छे. जीव ज्यारे पुरुषार्थ करे त्यारे
तेने पांच समवाय एक ज समये होय छे, स्वनी प्रतीतमां परनी प्रतीत आवी ज जाय छे. आवी क्रमबद्ध
वस्तुस्वरूपनी प्रतीतमां केवळज्ञाननो पुरुषार्थ आवी गयोछे.
प्रश्न:–जीव केवळज्ञान प्रगटवानो पुरुषार्थ करे पण ते वखते कर्मनी क्रमबद्ध अवस्था लांबो काळ
रहेवानी होय तो जीवने केवळज्ञान शी रीते थाय?
उत्तर:–वाह, तारी शंका! तने तारा पुरुषार्थनो ज भरोसो नथी तेथी तारी द्रष्टि कर्म तरफ लंबाणी छे. ‘
सूर्य उगशे अने अंधारूं नहि टळे तो? ’ एवी शंका करे ते मूर्ख छे. तेवी रीते ‘हुं पुरुषार्थ करूं अने कर्मनी
स्थिति लांबो काळ रहेवानी होय तो?’ आवी शंका जेने पडे तेने पुरुषार्थनी प्रतीत नथी, ते मिथ्याद्रष्टि छे.
कर्मनी क्रमबद्ध पर्याय एवी ज छे के जीव पुरुषार्थ करे त्यारे ते स्वयं टळी ज जाय. ‘कर्म लांबो काळ रहेवानां
होय तो?’ ए द्रष्टि तो परमां लंबाणी, अने तेम शंका करनारे पोताना पुरुषार्थने पराधीन मान्यो छे. तने
तारा आत्माना पुरुषार्थनी प्रतीत छे के नहि? हुं मारा स्वभावना पुरुषार्थथी केवळज्ञान प्रगट करूं छुं अने हुं
मारी केवळज्ञान दशा प्रगट करुं त्यारे घातिकर्मो होय ज नहि, एवो नियम छे. जेने उपादाननी श्रद्धा होय तेने
निमित्तनी शंका होय ज नहि निमित्तनी शंकामां जे रोकाणो छे तेणे उपादाननो पुरुषार्थ ज कर्यो नथी. उपादान
ते निश्चय छे अने निमित्त ते व्यवहार छे.
निश्चयनय आखा द्रव्यने लक्षमां ल्ये छे आखा द्रव्यनी श्रद्धामां केवळज्ञानथी ऊणपनो स्वीकार ज कयां
छे? क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धामां द्रव्यनी श्रद्धा छे अने द्रव्यनी श्रद्धामां केवळज्ञानथी उणीदशानी प्रतीत ज नथी,
माटे क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धामां केवळज्ञान ज छे.
केवळज्ञानी निश्चयथी तो संपूर्ण आत्मज्ञ ज छे, व्यवहारथी सर्वज्ञ छे. संपूर्ण आत्मज्ञ छे तो तेओ सर्वज्ञ
कहेवाय छे. आत्मज्ञता वगर सर्वज्ञता होई शके नहि.
हवे, सर्वज्ञ तो बधी ज वस्तुनी पर्यायोना क्रमने जाणे छे तेथी नीचली दशामां पण जे ‘बधी वस्तुनी
क्रमबद्धपर्याय छे’ एम प्रतीतमां ल्ये छे ते जीव सर्वज्ञताने स्वीकारे छे, अने जे सर्वज्ञता स्वीकारे छे ते आत्मज्ञ
ज छे केमके सर्वज्ञता कदी पण आत्मज्ञता वगर होती नथी. जे जीव वस्तुनी संपूर्ण क्रमबध्ध पर्यायोने नथी
मानतो ते सर्वज्ञताने मानतो नथी, अने जे सर्वज्ञताने मानतो नथी ते आत्मज्ञ होई शके नहि.
आत्माना संपूर्ण ज्ञानसामर्थ्यमां बधी वस्तुओनी त्रणे काळनी पर्यायो जेम थवानी छे तेम जणाय छे
अने जेम जणाय छे ते ज प्रमाणे थाय छे–आवी जेने प्रतीत करी तेणे क्रमबद्धपर्यायनी अने सर्वज्ञना सामर्थ्यनी
प्रतीत थई अने ते आत्मज्ञ थयो; आत्मज्ञ जीव सर्वज्ञ थाय ज छे.
वस्तुमां दरेक गुणनी पर्याय प्रवाहबद्ध चाली ज रही छे, एक तरफ सवर्ज्ञनुं केवळज्ञान परिणमी रह्युं छे,
बीजी तरफ जगतना सर्व द्रव्योनी पर्याय पोतपोतामां क्रमबद्ध परिणमी रही छे. अहो! आमां एक बीजानुं शुं
करी शके? बधा द्रव्यो पोतपोतामां ज परिणमी रह्यां छे, बस! आ प्रतीत करतां ज्ञान जुदुं ज रही गयुं;
बधामांथी राग द्वेष उडी गयो अने एकलुं ज्ञान रही गयुं, आ ज केवळज्ञान!
परमार्थथी निमित्त वगर ज कार्य थाय छे, विकारपणे के शुद्धतापणे जीव पोते ज स्वपर्यायमां परिणमे
छे, अने ते परिणमनमां निमित्तनी तो नास्ति छे. कर्म अने आत्मानुं भेगुं परिणमन थईने विकार थतो नथी
एक वस्तुना परिणमन वखते परवस्तुनी हाजरी होय तेथी शुं? परवस्तुनुं अने स्ववस्तुनुं परिणमन तो तद्न
जुदुं ज छे, तेथी जीवनी पर्याय निमित्त वगर पोताथी ज थाय छे, निमित्त कांई जीवनी राग–द्वेषादि पर्यायमां
पेसी जतुं नथी. माटे निमित्त वगर ज राग–द्वेष थाय छे. निमित्तनी हाजरी होय छे ते तो ज्ञान करवा माटे छे;
ज्ञानसामर्थ्य होवाथी जीव निमित्तने जाणे छे खरो, परंतु निमित्तना कारणे उपादानमां कांई पण थतुं नथी.