Atmadharma magazine - Ank 028
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: ९० : आत्मधर्म : माह : २४७२
स्वभावमां पोते भळीने–स्वभावनी एकता करीने, राग टाळीने जे ज्ञायक थई गयो छे तेने तो पोताना
स्वभावना पुरुषार्थमां नियत समाई जाय छे. स्वभावनो पुरुषार्थ छे त्यां नियमथी मोक्ष छे एटले पुरुषार्थमां
ज नियत आवी जाय छे, ज्यां पुरुषार्थ नथी त्यां मोक्षपर्यायनुं नियत पण नथी.
अहो! महान संत मुनिश्वरोए जंगलमां रहीने आत्मस्वभावनां अमृत वहेतां मूकयां छे. आचार्यदेवो
धर्मना स्थंभ छे, आभना थोभ जेवा आचार्यदेवोए पवित्र धर्मने टेको आपीने टकावी राख्यो छे. एकेक
आचार्यभगवंतोए गजब काम कर्युं छे. साधकदशामां स्वरूपनी शांति वेदतां परिषहोने जीतीने परम सत्यने
जीवंत राख्युं छे. आचार्यदेवना कथनमां केवळज्ञानना भणकारा वागी गया छे. आवा महान शास्त्रोनी रचना
करीने आचार्योए घणाघणा जीवो पर अपार उपकार कर्यो छे. रचना तो जुओ, पदे पदे केटलुं गंभीर रहस्य
छे! आ तो सत्यनी जाहेरात छे, आनां संस्कार अपूर्व चीज छे, अने आ समजण तो मुक्तिने वरवानां श्रीफळ
छे–आ समजे तेनो मोक्ष ज छे.
प्रश्न:–थवानुं होय ते थाय छे–एम मानवामां अनेकान्त स्वरूप कयां आव्युं?
उत्तर:–थवानुं होय तेम थाय छे एटले परनुं परथी थाय छे अने मारूं माराथी थाय छे एम जाणीने
परथी खसीने पोता तरफ वळ्‌यो तेणे स्वभावना लक्षे मान्युं छे, तेनी मान्यतामां अनेकान्तस्वरूप छे. ‘ मारी
पर्याय मारा द्रव्यमांथी क्रमबद्ध आवे छे, मारी पर्याय परमांथी आवती नथी’ आम अनेकांत छे; तथा ‘ परनी
पर्याय परना द्रव्यमांथी क्रमबद्ध जे थवानी होय ते थाय छे, हुं तेनी पर्याय करतो नथी ’ आम अनेकांत छे; ‘
थवानुं होय ते ज थाय’ एम जाणीने पोताना द्रव्य तरफ ढळवुं जोईए, परंतु ‘ थवानुं होय ते थाय’ एम जे
एकला परथी माने छे, परंतु स्वद्रव्यनी पर्याय कयांथी आवे छे तेनी प्रतीत करतो नथी एटले के परलक्ष छोडी
स्वलक्ष करतो नथी ते एकांतवादी छे.
प्रश्न:–भगवाने तो मोक्षमार्गना पांच समवाय कह्या छे अने तमे तो एक पुरुषार्थ–पुरुषार्थ ज करो छो,
तो पछी तेमां बीजा चार समवायो कई रीते आवे छे?
उत्तर:–ज्यां जीव साचो पुरुषार्थ करे छे त्यां स्वयं बीजा चारे समवाय होय ज छे. पांच समवायनुं
संक्षिप्त स्वरूप नीचे प्रमाणे समजवुं.
१–परनुं हुं कांई करनार नथी, हुं तो ज्ञायक छुं, मारी पर्याय मारा द्रव्यमांथी आवे छे–आम स्वभावद्रष्टि
करीने परनी द्रष्टि तोडी ते पुरुषार्थ.
२–स्वभावद्रष्टिनो पुरुषार्थ करतां जे निर्मळदशा प्रगटी, ते दशा स्वभावमां हती ते ज प्रगटी छे, एटले
जे शुद्धता प्रगटी ते स्वभाव.
३–स्वभावद्रष्टिना पुरुषार्थवडे स्वभावमांथी जे क्रमबद्ध पर्याय ते समये प्रगटवानी हती ते ज शुद्ध
पर्याय ते समये प्रगटी ते नियत. स्वभावनी द्रष्टिना जोरे स्वभावमां जे पर्याय प्रगटवानी ताकात हती ते ज
पर्याय प्रगटी छे. बस! स्वभावमांथी जे समये जे दशा प्रगटी ते ज पर्याय तेनी नियत छे. पुरुषार्थ करनार
जीवने स्वभावमां जे नियत छे ते ज प्रगटे छे पण बहारथी आवतुं नथी.
४–स्वद्रष्टिना पुरुषार्थ वखते जे दशा प्रगटी ते ज ते वखतनो स्वकाळ छे. पहेलांं पर तरफ ढळतो तेने
बदले स्वमां ढळ्‌यो ते ज स्वकाळ छे.
प–स्वभावद्रष्टिथी ज्यारे आ चार समवाय प्रगटया त्यारे निमित्तरूप कर्मो तेनी पोतानी लायकातथी
स्वयं खसी गया छे, ते ‘कर्म’ छे.
आमां पुरुषार्थ, स्वभाव, नियत अने काळ ए चार समवाय अस्तिरूप छे अर्थात् ते चारे उपादाननी
पर्यायमां लागु पडे छे अने पांचमुं समवाय नास्तिरूप छे ते निमित्तमां लागु पडे छे. अथवा जो पांचमुं समवाय
आत्मामां लागु पाडवुं होय तो ते आ प्रमाणे छे.–परवलणथी खसीने स्वभाव तरफ वळतां प्रथमना चारनुं
अस्तिरूपे अने कर्मनुं नास्तिरूपे एम आत्मामां पांचे समवायनुं परिणमन थई गयुं छे एटले स्वना
पुरुषार्थमां पांचे समवाय पोतानी पर्यायमां समाई जाय छे. पहेलां चार अस्तिथी अने पांचमुं नास्तिथी
पोतामां छे.
ज्यारे सम्यक् पुरुषार्थ जीवे न कर्यो त्यारे विकारी भाव माटे कर्म निमित्त कहेवाणुं अने ज्यारे सम्यक्
पुरुषार्थ कर्यो त्यारे कर्मनो अभाव निमित्त कहेवाणो छे. जीव पोतामां पुरुषार्थ वडे चार समवाय प्रगट करे अने
सामे कर्मनी दशा फरवानी न होय एम बने ज नहि. जीव स्वलक्ष करीने चार समवायरूपे परिणम्यो अने कर्म