: माह : २४७२ आत्मधर्म : ८९ :
न्यायोमांथी ऊंचा–ऊंचा जातना न्यायो पीरसाय छे–के जे पचावतां आत्मा पुष्ट थाय. तारे सर्वज्ञ भगवान थवुं
होय तो तुं पण आ वात मान, जेणे आ वात मानी तेनी मुक्ति ज छे. ल्यो! आ ‘मुक्तिना मांडवा’ पछी त्रीजा
दिवसना हरख जमण! [सुवर्णपुरीमां ‘भगवानश्री कुंदकुंदप्रवचनमंडप’नुं खातमुहूर्त–अर्थात्– ‘मुक्तिनां
मांडवा’ मागसर सुद १० ना रोज थयेल त्यारथी त्रीजा दिवसनुं आ व्याख्यान होवाथी अहीं ‘त्रीजा दिवसना
हरख जमण’ कहेल छे.]
हवे, गाथा–३२१–३२२ मां जे वस्तुस्वरूप बताव्युं तेनी विशेष द्रढता माटे ३२३ मी गाथा कहे छे:– जे
जीव पूर्वे गाथा–३२१–३२२ मां कहेला वस्तुस्वरूपने जाणे छे ते तो सम्यग्द्रष्टि छे अने जे तेमां संशय करे छे ते
मिथ्याद्रष्टि छे–
एवं जो णिच्चयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए।
सो सद्रिट्ठी सुद्धो जो शंकदि सो हु कुद्रिट्ठि।। ३२३।।
अर्थ:–आ प्रमाणे निश्चयथी सर्व द्रव्यो (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ) तेमज ते
द्रव्यनी सर्व पर्यायोने सर्वज्ञना आगम अनुसार जाणे छे–श्रद्धा करे छे ते शुद्ध सम्यग्द्रष्टि छे, अने जे आवुं
श्रद्धान न करे–शंका संदेह करे ते सर्वज्ञना आगमथी प्रतिकूळ छे–प्रगटपणे मिथ्याद्रष्टि छे.
सर्वज्ञदेवे केवळज्ञानवडे जाणीने आगममां कहेलां द्रव्यो अने तेनी अनादि अनंतकाळनी बधी पर्यायो
जेना ज्ञानमां अने प्रतीतमां बेसी गयां ते “सद्रिट्ठि सुद्धो” एटले शुद्ध सम्यग्द्रष्टि छे, मूळपाठमां ‘सो सत्द्रष्टि
शुद्धः’ एम कहीने जोर मूकयुं छे, पहेली वात अस्तिथी करी पछी नास्तिथी कहे छे के “शंकादि सोहु कुद्रिट्ठी”
जे तेमां शंका करे छे ते प्रगटपणे मिथ्याद्रष्टि सर्वज्ञनो वेरी छे.
स्वामीकार्तिकेयाचार्यदेवे आ ३२१–३२२–३२३ गाथामां गूढ रहस्य संकेली दीधुं छे. सम्यग्द्रष्टि जीव
बराबर जाणे छे के त्रिकाळी बधाय पदार्थोनी अवस्था क्रमबद्ध छे, सर्वज्ञदेव अने सम्यग्द्रष्टिमां एटलो फेर छे के
सर्वज्ञदेव बधा द्रव्योनी क्रमबद्धपर्यायोने प्रत्यक्षज्ञानथी जाणे छे, अने सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा बधा द्रव्योनी क्रमबद्ध
पर्यायोने आगम प्रमाणथी प्रतीतमां ल्ये छे एटले के परोक्ष ज्ञानथी नक्की करे छे; सर्वज्ञने वर्तमान राग–द्वेष
सर्वथा टळी गया छे. सम्यग्द्रष्टिने पण अभिप्रायमां राग–द्वेष सर्वथा टळी गया छे. सर्वज्ञ भगवान
केवळज्ञानथी त्रणकाळने जाणे छे, सम्यग्द्रष्टि जीव जो के केवळज्ञानवडे नथी जाणतो तोपण श्रुतज्ञानवडे ते
त्रणकाकाळना पदार्थोनी प्रतीत करे छे. तेनुं ज्ञान पण निःशंक छे; पर्याय ते दरेक वस्तुओनो धर्म छे, वस्तु
स्वतंत्रपणे पोतानी पर्यायरूपे थाय छे, जे वखते जे पर्याय थाय तेने मात्र जाणवानुं ज ज्ञाननुं कर्तव्य छे,
जाणतां ‘आ पर्याय आम केम थई’ एम शंका करनारने वस्तुना स्वतंत्र ‘पर्याय–धर्म’नी अने ज्ञानना कार्यनी
खबर नथी, ज्ञाननुं कार्य मात्र जाणवानुं छे, जाणवामां ‘आम केम’ ए शंका कयां छे? ‘आम केम’ एवी शंका
करवानुं स्वरूप ज्ञाननुं नथी, पण ‘जे पर्याय थाय छे ते वस्तुना धर्म प्रमाणे ज थाय छे’ माटे जेम थाय तेम
तेने जाणवानो ज्ञाननो स्वभाव छे, आ रीते ज्ञानस्वभावनो निर्णय करीने ज्ञानी तो निःशंकपणे बधाने जाण्या
ज करे छे. आवा ज्ञानना जोरे केवळज्ञान अने पोतानी पर्याय वच्चेना अंतरने तोडीने पूर्ण केवळज्ञान ते
अल्पकाळमां प्रगट करशे.
जे जीव वस्तुनी क्रमबद्ध स्वतंत्र पर्यायने नथी मानतो अने ‘परनुं हुं फेरवुं के पर मने रागद्वेष करावे’
एम माने छे तेने सर्वज्ञना ज्ञाननी श्रद्धा नथी तेम ज ते सर्वज्ञना आगमथी प्रतिकूळ, प्रगटपणे मिथ्याद्रष्टि छे.
सर्वज्ञना ज्ञानमां जे जणायुं तेमां हुं फेरफार करी दउं एम जेणे मान्युं तेणे सर्वज्ञना ज्ञानने मान्युं नथी. सर्वज्ञनुं
ज्ञान अने तेमनी श्रीमुखवाणीना न्यायोने जे नथी मानतो ते प्रगटपणे मिथ्याद्रष्टि छे; सर्वज्ञदेव त्रणकाळ
त्रणलोकना बधा द्रव्योनी पर्यायने जाणे छे अने बधी वस्तुनी पर्याय प्रगटपणे तेनाथी स्वयं थाय छे छतां
तेनाथी विरुद्ध (सर्वज्ञना ज्ञानथी अने वस्तुना स्वरूपथी विरुद्ध) जे माने छे ते सर्वज्ञनो अने पोताना
आत्मानो विरोधी प्रगटपणे मिथ्याद्रष्टि छे.
भले, पर्याय क्रमबद्ध थाय छे पण पुरुषार्थ वगर पर्याय थती नथी. जे तरफनो पुरुषार्थ करे ते तरफनी
क्रमबद्ध पर्याय थाय. कोई पूछे के आमां तो नियत आव्युं ने? तो उत्तर–भाई! त्रणेकाळनी नियत पर्यायनो
निर्णय करनार कोण छे? जेणे त्रणेकाळनी पर्याय नक्की करी तेणे द्रव्य ज नक्की कर्युं छे. पर लक्षे स्वनुं नियत
माने तो ते एकांतवादी वातोडियो छे अने पोताना स्वभावना लक्षे–