थती नथी एटले के वस्तुनी क्रमबद्ध अवस्था थाय छे एवी द्रष्टि थतां पोते ज्ञाता द्रष्टा थई जाय छे, अने ज्ञाता
द्रष्टाना जोरवडे अस्थिरता तोडीने संपूर्ण स्थिर थई अल्पकाळे मुक्ति पामे छे, आमां अनंत पुरुषार्थ आव्यो छे.
पूर्णता सुधी बधेय सम्यक् पुरुषार्थ अने ज्ञाननुं ज कार्य छे.
माने अने परथी पोताने सुख–दुःख थाय एम माने छे तेने क्रमबद्धपर्यायनी जरापण प्रतीत नथी.
नथी. केवळज्ञान अने मोक्षदशा पण मारा गुणमांथी ज क्रमबद्ध प्रगटे छे. आवी रीते क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा थतां
पोतानी पर्याय उघडवा माटे कोई पर उपर लक्ष रहेशे नहि, अने तेथी कोई पर उपर राग–द्वेष करवानुं कारण
नहि रहे; एटले शुं थयुं? के बधा पर उपरनुं लक्ष छूटीने पोतामां जोवा माटे वळ्यो. हवे पोतामां पण “मारी
पूर्ण शुद्ध पर्याय कयारे उघडशे” एवो आकूळतानो विकल्प रहेशे नहि, केमके त्रणेकाळनी क्रमबद्धपर्यायथी भरेलुं
द्रव्य तेनी प्रतीतमां आवी गयुं छे. तेथी क्रमबद्धपर्यायनी जे श्रद्धा करे ते जीव तो नजीक मुक्तिगामी ज होय.
छे के आ द्रव्यनी आ वखते आवी ज क्रमबद्धअवस्था थवानी हती, ते ज प्रमाणे थयुं छे, तो पछी ते तेमां राग
के द्वेष केम करे? मात्र जे वखते जे वस्तुनी जे अवस्था थती जाय तेनुं ज्ञान ज करे, बस! ज्ञाता थई गयो,
ज्ञातापणे रहीने अल्पकाळमां केवळज्ञान पामी मुक्ति पामशे–आ क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धानुं फळ!
पुरुषार्थनो स्वीकार नथी ते पोताना पुरुषार्थने उपाडतो नथी अने तेथी पुरुषार्थ वगर तेने सम्यग्दर्शन अने
केवळज्ञान थतुं नथी. पुरुषार्थ नहि स्वीकारनारनी क्रमबद्धपर्याय निर्मळ नहि थाय, पण विकारी थशे एटले
पुरुषार्थ नहि स्वीकारनार अनंत संसारी छे अने पुरुषार्थ स्वीकारनार नजीक मुक्तिगामी छे. क्रमबद्धअवस्थानो
निर्णय कहो के पुरुषार्थवाद कहो–ते आ ज छे.
छे? विकारने यथार्थपणे जाणवानुं काम करनार वीर्य तो पोताना ज्ञाननुं छे अने ते ज्ञाननुं वीर्य विकारथी
खसीने स्वभावना ज्ञानमां अटकयुं छे; स्वभावना ज्ञानमां अटकेलुं वीर्य विकारनी के परनी रुचिमां अटके ज
नहि, पण स्वभावना जोरे विकारनो अल्पकाळमां क्षय करे. जेने विकारनी रुचि छे तेनी द्रष्टिनुं जोर (वीर्यनुं
वजन) विकार तरफ जाय छे. “थवानी होय ते ज पर्याय क्रमबद्ध थाय छे” आम कोनुं वीर्य कबुल करे छे? आ
कबुलनारना वीर्यमां परमां सुखबुद्धि न होय, पण स्वभावमां ज संतोष होय.
आमंत्रण छे, आखा जगतने आमंत्रण छे, मुक्तिमंडपना हरख जमणमां सर्वज्ञ भगवाने दिव्यध्वनिमां
पीरसेलां