: माह : २४७२ आत्मधर्म : ८७ :
खेरववानो पुरुषार्थ कर्यो नथी, पण पोताना स्वभावमां रहेवानो पुरुषार्थ कर्यो छे जीवना विशेष
पुरुषार्थनुं ज्ञान कराववा माटे आरोपथी एम बोलाय छे के घणाकाळना कर्म परमाणुओ अल्पकाळमां
खेरवी नांख्या, आ आरोपकथनमां साचुं वस्तुस्वरूप तो एम छे के जीवे स्वभावमां रहेवानो पुरुषार्थ
कर्यो अने ते वखते जे कर्मोनी अवस्था स्वयं खरवारूप हती ते कर्मो खरी गयां. परमाणुनी अवस्थाना
क्रममां भंग पडतो नथी. घणां काळना कर्मो क्षणमां टाळी नांख्या तेनो अर्थ एटलो ज समजवो के जीवे
घणो पुरुषार्थ पोतानी पर्यायमां कर्यो छे.
छ ए द्रव्यो परिणमनस्वभावी छे अने तेओ पोतानी मेळे क्रमबद्धपर्यायमां परिणमे छे. छ ए द्रव्यो
परनी सहाय वगर स्वयं परिणमे छे. आ श्रद्धा करवामां ज अनंत पुरुषार्थ छे. पुरुषार्थ वगरनी जीवनी एके
पर्याय थती नथी, मात्र पुरुषार्थनुं वलण स्वतरफ करवाने बदले पर तरफ जीव करे छे ते ज अज्ञान छे. जो
स्वभावनी रुचि करे तो स्वभाव तरफना पुरुषार्थवडे पर्यायनुं परिणमन स्वभाव तरफ वळे, एटले पर्याय
क्रमेक्रमे शुद्ध ज थाय.
आ वातनी समजणमां आत्माना मोक्षनो उपाय रहेलो छे माटे आ वात बराबर छंछेडीने समजवी,
जरा पण ढांकवी नहि. निर्णयपूर्वक खुल्ली करीने जाणवी जोईए. परम सत्ने ढंकाय नहि पण उहापोह करीने
बराबर छंछेडी–छंछेडीने नक्की करवुं जोईए. सत्यमां कोईनी शरम होय नहि. आ तो वस्तुस्वरूप छे.
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा पोताना सम्यग्ज्ञानथी एम जाणे छे के सर्वज्ञ भगवाने पोताना ज्ञानमां जाण्युं छे ते
प्रमाणे दरेक वस्तुओ क्रमबद्ध परिणमे छे, मारी केवळज्ञान पर्याय पण क्रमबद्धपणे मारा स्वद्रव्यमांथी ज
प्रगटवानी छे, आवी सम्यक्भावनाथी तेनुं ज्ञान लंबाईने स्वभावमां एकाग्र थाय छे अने ज्ञाताशक्ति पर्याये
पर्याये निर्मळ थती जाय छे तथा विकारी पर्याय क्रमेक्रमे टळती जाय छे. कोण कहे छे आमां पुरुषार्थ नथी?
आवा स्वभावमां जे निःशंक छे ते सम्यग्द्रष्टि छे अने आ स्वभावमां कांईपण संदेह वेदे ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने
सर्वज्ञना ज्ञाननी अने पोताना ज्ञातास्वभावनी श्रद्धा नथी.
अहा! आ सम्यग्द्रष्टि जीवनी भावना तो जुओ! स्वभावथी शरू कर्युं छे अने स्वभावमां ज लावीने
पूरूं करे छे. जे ठेकाणे शरू कर्युं छे त्यांने त्यां लावी मूकयुं छे. आत्मामां स्वाश्रये साधकदशा शरू करी छे अने
पूर्णता पण स्वाश्रये आत्मामां ज थाय छे. केवळज्ञान संपूर्णपणे स्वमां ज समाय छे. साधक धर्मात्मा पोतामां
ज समावा मागे छे, बहारथी कयांयथी शरू कर्युं नथी अने बहारमां कयांय अटकवानुं नथी. आत्मानो मार्ग
आत्मामांथी नीकळीने आत्मामां ज समाय छे.
एकला जीवनी वात नथी पण बधा ज पदार्थोनी अवस्था क्रमबद्ध थाय छे, अहीं मुख्यपणे जीवनी वात
समजावी छे. आत्मानी अवस्था आत्मामांथी ज क्रमबद्ध प्रगटे छे एम नक्की करवामां अनंतु वीर्य छे; आ नक्की
करतां, अनंता परपदार्थोने सारा–खराब मानीने पहेलांं जे राग–द्वेष थतां ते बधा टळी गया, पर निमित्तनुं
धणीपणुं मानीने वीर्य परमां अटकतुं ते हवे पोताना आत्मस्वभावने जोवा वळगी गयुं, राग–निमित्त ए
बधानी द्रष्टि गई अने स्वभावमां द्रष्टि थई; स्वभाव द्रष्टिमां पोतानी पर्यायनी स्वाधीनतानी केवी प्रतीत आवे
छे तेनी आ वात छे. स्वभावद्रष्टि समज्या वगरनां व्रत, तप, भक्ति, दान अने भणतर ए बधुंय एकडा
वगरना मींडानी जेम वृथा छे, मिथ्याद्रष्टि जीवने ते कांई साचुं होतुं नथी.
अहो भगवान! तारी वस्तुमां भगवान जेटलुं परिपूर्ण सामर्थ्य छे, भगवानपणुं वस्तुमांथी ज
प्रगटवानुं छे. आवा टाणे यथार्थ वस्तुने द्रष्टिमां न ले तो वस्तुना स्वरूपने जाण्या वगर जन्म–मरणना अंत
नथी. वस्तु जाणतां अनंत संसार टळी जाय छे. वस्तुमां संसार नथी, वस्तुनी प्रतीत थतां मोक्षपर्यायनी
तैयारीना भणकार वागे छे, भगवान! तारा स्वभावनी वात छे, हा तो लाव! तारा स्वभावना हकारमांथी
स्वभावदशानी अस्ति आवशे, स्वभावसामर्थ्यनी ना न पाड! ‘सब प्रकार अवसर आ चूका है’ तारा द्रव्यमां
द्रष्टि करीने जो, द्रव्यमांथी सादि–अनंतकाळ मोक्षदशा प्रगटे छे, ते द्रव्यनी प्रतीतना जोरे मोक्षदशा प्रगटी जाय छे.
।। ३२१–३२२।।
जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ ए छ ए द्रव्योमां क्रमबद्धपर्याय छे. जीव
जो पोतानी क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा करे तो तेनी क्रमबद्ध–मोक्षपर्याय थया विना रहे नहि; केमके क्रमबद्धनी श्रद्धानुं
वजन स्वमां आवे छे, जे वस्तुमांथी पोतानी अवस्था आवे छे ते वस्तु उपर द्रष्टि मूकवाथी मोक्ष