परंपराथी श्रुतनी अत्रूटधारा अत्यारे चाले छे. निर्ग्रंथ संतो–मुनिओए सत्य श्रुतज्ञानने पोतानी पर्यायमां
अत्रूटपणे टकावी राख्युं अने शास्त्ररूपे गूंथीने महान उपकार कर्यो छे. ते श्रुत वडे अंतर स्वभावनी संधि थाय
छे. महान संतोए श्रुतवडे पोताना स्वभाव साथे केवळज्ञाननी अत्रूट संधि करी अने बहारमां पण श्रुतने
अविच्छिन्न राख्युं. ते श्रुतज्ञान अविच्छिन्न रहेशे. परमार्थथी श्रुतज्ञान वडे आत्मस्वभाव समजे तेना
आत्मस्वभावने बतावनार आ समयसार छे ते पण श्रुत छे अने तेनो पण आजे महोत्सव छे. श्रुतनो आशय
समजीने पोताना आत्मामां श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरता करवां ते ज अपूर्व ज्ञाननी उजवणी छे. लगभग २००० वर्ष
पहेलांं श्री पुष्पदंत–भूतबलि आचार्योए रचेला ‘षट्खंडागम’ व्यवहारनां शास्त्रो छे, तेमां पर्यायनी मुख्यताए
कथन आवे छे; अने श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे समयसारादि शास्त्रो रच्यां ते निश्चयनी मुख्यताए छे; ते समयसार
अत्यारे वंचाय छे, छेल्लो– (२७८ मो) कळश चाले छे.
आ समयसारनी टीकानी रचना करी नथी. आ ज यथार्थ वस्तुस्वरूप छे. मात्र नम्रता खातर ज कह्युं छे–एम
नथी परंतु वस्तु स्वरूप ज एम छे.
संबंध ज्ञानने नथी. वाच्य वाचक संबंध तो वाणीने अने भावने छे. भाव ते वाच्य छे अने वाणी तेनी वाचक
छे. ज्ञान तो बंनेने जाणनारूं ज्ञाता छे.
रची छे, शब्दो ज स्वयं ते रूपे परिणम्या छे.
ज आचार्य प्रभुनो खरो विनय छे. साचुं समजतां निश्चयथी पोताना आत्मानो विनय छे, अने व्यवहारथी
तेमां आचार्यदेवनो विनय पण छे. परनो विनय ते ज व्यवहार छे. साचुं समज्या वगर विनय होई शके नहि.
विकल्प हतो तेथी व्यवहारथी आ टीका अमृतचंद्राचार्य कृत कहेवाय छे, माटे तेना समजनारा, सांभळनारा,
वांचनाराओए तेमनो विनय करवो योग्य छे. ज्यारे आ टीका रचाणी ते वखते विकल्पनुं निमित्त हतुं, ए
विकल्पनी हाजरीनुं ज्ञान कराववा माटे व्यवहारे एम पण कही शकाय के अमुक कार्य अमुक व्यक्तिए कर्युं. ए
न्याये आ टीका पण अमृतचंद्राचार्य कृत ज छे. एम व्यवहारथी कही शकाय छे अने तेथी समयसारनुं वांचन–
श्रवण करनाराओए तेमनो उपकार मानवो योग्य छे. नैमित्तिक–