Atmadharma magazine - Ank 033
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४७२ : आत्मधर्म : १६५ :
श्री सद्गुरुदेवश्री कहान प्रभुने नमस्कार
सर्वज्ञ भगवान श्री तीर्थंकरदेवनी वाणीनी जे परंपरा हती ते आजे श्रुतरूपे गूंथाणी छे. अंकलेश्वरमां
आजे ते श्रुतनो महान महोत्सव थयो हतो तेथी आजनो दिवस श्रुत–पंचमी तरीके उजवाय छे. सर्वज्ञदेवनी
परंपराथी श्रुतनी अत्रूटधारा अत्यारे चाले छे. निर्ग्रंथ संतो–मुनिओए सत्य श्रुतज्ञानने पोतानी पर्यायमां
अत्रूटपणे टकावी राख्युं अने शास्त्ररूपे गूंथीने महान उपकार कर्यो छे. ते श्रुत वडे अंतर स्वभावनी संधि थाय
छे. महान संतोए श्रुतवडे पोताना स्वभाव साथे केवळज्ञाननी अत्रूट संधि करी अने बहारमां पण श्रुतने
अविच्छिन्न राख्युं. ते श्रुतज्ञान अविच्छिन्न रहेशे. परमार्थथी श्रुतज्ञान वडे आत्मस्वभाव समजे तेना
आत्मामां श्रुतज्ञानना मंगळिक महोत्सव उजवाय छे–तेनो आत्मा ज मंगळिकरूप छे, अने एवा
आत्मस्वभावने बतावनार आ समयसार छे ते पण श्रुत छे अने तेनो पण आजे महोत्सव छे. श्रुतनो आशय
समजीने पोताना आत्मामां श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरता करवां ते ज अपूर्व ज्ञाननी उजवणी छे. लगभग २००० वर्ष
पहेलांं श्री पुष्पदंत–भूतबलि आचार्योए रचेला ‘षट्खंडागम’ व्यवहारनां शास्त्रो छे, तेमां पर्यायनी मुख्यताए
कथन आवे छे; अने श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे समयसारादि शास्त्रो रच्यां ते निश्चयनी मुख्यताए छे; ते समयसार
अत्यारे वंचाय छे, छेल्लो– (२७८ मो) कळश चाले छे.
टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्य महाराज कहे छे के–आ टीका में करी नथी, पुद्गलो ज स्वयमेव शब्दोरूपे
परिणम्या छे. त्रणकाळमां केवळी भगवान के कोई पण जीव एक परमाणु मात्रने फेरववा समर्थ नथी, में पण
आ समयसारनी टीकानी रचना करी नथी. आ ज यथार्थ वस्तुस्वरूप छे. मात्र नम्रता खातर ज कह्युं छे–एम
नथी परंतु वस्तु स्वरूप ज एम छे.
ज्ञान तो जाणे, पण परमां कांई करे नहिं. वाच्यभावने दर्शावनारा (वाचक) तो शब्दो छे; शब्दो ज
वाच्यने बतावे छे, परंतु ज्ञान तो जाणनार ज छे. ज्ञानने पर साथे ज्ञेयज्ञायक संबंध छे पण वाच्य वाचक
संबंध ज्ञानने नथी. वाच्य वाचक संबंध तो वाणीने अने भावने छे. भाव ते वाच्य छे अने वाणी तेनी वाचक
छे. ज्ञान तो बंनेने जाणनारूं ज्ञाता छे.
अहीं आचार्यदेवे वस्तु स्वरूप जाहेर कर्युं अने पोतानी निर्मानता दर्शावी. अज्ञानी कर्तृत्वनां अभिमान
करे तो पण ते वाणी वगेरेनो कर्ता तो निमित्तपणे पण नथी, अज्ञानभावे मात्र अहंकारनो कर्ता छे.
श्री समयसारनी घणी ज अद्भुत टीका रचाणी छे; छतां ‘अहो, में केवी सुंदर टीका लखी’ –एम
आचार्यदेवने विकल्प नथी ऊठतो, परंतु तेओ कहे छे के हुं तो मारा अमृत स्वरूपमां लीन छुं, आ टीका शब्दोए
रची छे, शब्दो ज स्वयं ते रूपे परिणम्या छे.
कोई एम कहे के, जो आचार्यदेवे आ टीका नथी करी एम मानशुं तो आचार्यदेवनो विनय कोई नहि करे.
तो तेनुं समाधान:– भाई, आचार्यदेवे सत्य वस्तु स्वरूप ज जाहेर कर्युं छे अने ते सत्य समजवुं ए समजणमां
ज आचार्य प्रभुनो खरो विनय छे. साचुं समजतां निश्चयथी पोताना आत्मानो विनय छे, अने व्यवहारथी
तेमां आचार्यदेवनो विनय पण छे. परनो विनय ते ज व्यवहार छे. साचुं समज्या वगर विनय होई शके नहि.
‘हुं तो ज्ञाता ज छुं, आ टीका में रची नथी’ एम निर्मानतापूर्वक वस्तु स्वरूप जाहेर करीने आचार्यदेवे
पूर्णता करी: हवे जयचंद्र पंडित तेनां भावार्थमां स्पष्टीकरण करे छे: अमृतचंद्र आचार्यदेवने आ टीका रचवानो
विकल्प हतो तेथी व्यवहारथी आ टीका अमृतचंद्राचार्य कृत कहेवाय छे, माटे तेना समजनारा, सांभळनारा,
वांचनाराओए तेमनो विनय करवो योग्य छे. ज्यारे आ टीका रचाणी ते वखते विकल्पनुं निमित्त हतुं, ए
विकल्पनी हाजरीनुं ज्ञान कराववा माटे व्यवहारे एम पण कही शकाय के अमुक कार्य अमुक व्यक्तिए कर्युं. ए
न्याये आ टीका पण अमृतचंद्राचार्य कृत ज छे. एम व्यवहारथी कही शकाय छे अने तेथी समयसारनुं वांचन–
श्रवण करनाराओए तेमनो उपकार मानवो योग्य छे. नैमित्तिक–