: १६६ : आत्मधर्म : अषाढ : २४७२ :
कार्य थाय ते वखते हाजर रहेला निमित्तमां आरोप आवे. आ समयसारनी टीका थई त्यारे अमृतचंद्राचार्य
देवना विकल्पनी हाजरी हती, तेथी आरोप आव्यो के अमृतचंद्राचार्यदेवे टीका रची... परंतु खरी रीते तो टीका
रचवानो जे विकल्प उठयो तेनुं कर्तृत्व पण तेमने तो नथी, तो पछी जड शब्दोना कर्ता तेओ केम होय? छतां
ज्यारे विनय–बहुमान करवानुं होय त्यारे तो अमृतचंद्राचार्यदेवनेज व्यवहारे कर्ता कहीने तेमनो विनय–सत्कार
करवो योग्य छे.
आ महान शास्त्रना श्रवणथी–वांचनथी–मननथी पारमार्थिक आत्मानी प्राप्ति थाय छे–अर्थात् सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान प्रगटे छे. परमार्थे जेओ पोते आत्मामां सम्यग्दर्शनादि प्रगट करे तेओने ‘आ शास्त्रवडे पारमार्थिक
आत्मानी प्राप्ति थई’ एम उपचारथी कहेवाय छे, शास्त्र तो निमित्त छे. परंतु पोते परमार्थ स्वरूप समज्या
वगर गमे तेटला वर्षो वांचे तोपण साचुं ज्ञान न थाय. परंतु जेओ पारमार्थिक स्वभावने समजे तेमने आ
सत्शास्त्र निमित्त थाय छे, माटे आ परमागमग्रंथनो निरंतर अभ्यास, श्रवण, मनन करवा योग्य छे.
आ शास्त्रमां गंभीर रहस्य रहेलां छे; गुरुगम वगर समजाय तेवुं नथी. जयचंद्रजी पंडित कहे छे के ‘आ
ग्रंथनो गुरु संप्रदाय (–गुरुपरंपरानो) व्युच्छेद थई गयो छे. ’ आ कथन तो १५० वर्ष पहेलांनुं छे. परंतु
अत्यारे ते व्युच्छेद फरीने अत्रूटपणे संधाई गयो छे, गुरुपरंपरा अविच्छिन्नपणे चाले छे. श्री कुंदकुंदाचार्यदेवनी
कृपाथी–सेवाथी आ आत्माने भावश्रुत मळ्युं छे अने तेथी तेमनी कृपाए आजे आ समयसारनी परंपरा संधाई
गई छे. सीमंधर भगवाननी ध्वनिना लाभथी अने कुंदकुंदप्रभुनी कृपाथी तेमज पोतानी पात्रताथी, मुमुक्षु
जीवोना महाभाग्ये आ समयसारनी परंपरा चालु थई छे अने आचार्यदेवश्रीनो आशय जळवाई रह्यो छे. ए
रीते श्रुतधारा अच्छिन्न छे... सम्यग्ज्ञान जयवंत वर्ते छे... आ रीते श्री समयसारजीशास्त्रनुं पूर्णमंगळ थयुं.
(श्री समयसारजीनुं सातमीवार वांचन पूर्ण)
हवे श्रुतपंचमी संबंधमां:
आजे श्रुतपंचमीनो दिवस छे अने आ समयसारजी द्वारा श्रुतपरंपरा अच्छिन्न वर्ते छे. आजना (जेठ
सुद प) महान दिवसे पुष्पदंत अने भूतबलि आचार्योने अपार श्रुतज्ञान प्रत्ये आहलाद आवी गयो हतो अने
उत्साहमां हरखथी श्रुतनी प्रतिष्ठा करी हती. पोताने धरसेनाचार्य देव पासेथी जे अविच्छिन्न श्रुतज्ञान मळेलुं
तेनी शास्त्ररूपे रचना करी हती अने ते रचना पूरी थतां श्रुत प्रत्येनी अपार भक्तिथी आजे उत्सव पूर्वक तेनुं
पूजन कर्युं हतुं. अंतरमां तो श्रुतज्ञानवडे पोताना स्वरूपनी अविच्छिन्न संधि करी छे, जे पवित्र श्रुतज्ञान
प्रगट्युं ते वच्चे त्रूट पड्या वगर अविच्छिन्नधाराए केवळज्ञान प्रगट थाव, एवी भावना छे अने बहारमां
श्रुतनी अविच्छिन्न परंपरा टकी रहे एवो विकल्प उठयो छे.
सौराष्ट्रदेशमां गीरनार पर्वतनी चन्द्रगूफामां महामुनि श्री धरसेनाचार्यदेव बिराजता हता, तेओ अंग–
पूर्वना एकदेश ज्ञाता हता. अल्पायुष्य बाकी रहेतां एकवार तेमने विकल्प उठयो के हवे कोई अंग–पूर्वना
जाणकार छे नहि तेथी अंगश्रुतनो विच्छेद थशे... आ साथे तेमने श्रुतने अच्छिन्न राखवानी भावना थई अने
दक्षिणमांथी बे मुनिओने बोलाव्या... ते बे मुनिओ ज्यारे आवता हता त्यारे श्री धरसेनमुनिने स्वप्न आव्युं
के–बे अत्यंत सफेद बळदो विनयपूर्वक पोतानां चरणमां पडे छे. आ शुभस्वप्न जोईने तेओ संतुष्ठ थया अने
उत्साहमां एवुं वाक्य बोल्या के “जय हो श्रुतज्ञाननो.”
ते ज दिवसे बे मुनिओ आवी पहोंच्या अने वंदन करी विनयपूर्वक आज्ञा मागी. धरसेनाचार्यदेवे
तेमनी परीक्षा करी अने पछी संतुष्ट थतां, सर्वज्ञ परंपराथी चाल्युं आवतुं श्रुतज्ञान तेमने आप्युं. ते बे
मुनिराजनां नामो भूतबलि अने पुष्पदंत आचार्य हता त्यार पछी ते बे आचार्यदेवोए श्रीषट्खंडागमनी
रचना करी, अने श्रुतप्रवाह अच्छिन्नपणे वहेतो राख्यो...
ए प्रमाणे ‘षट्खंडागम’ नी रचना पुस्तकारूढ करीने जेठ सुद प ना रोज चतुर्विध संघ साथे श्री
भूतबलि आचार्यदेवे श्रुतनी पूजा उत्साहथी करी हती, तेथी ते श्रुतपंचमीना रोज आजे पण जैनो श्रुतनी
आराधना करे छे.
आ रीते शासनना स्थंभ महान आचार्योए दिव्य ध्वनिना धोख प्रवाहने वहेतो राख्यो छे... दिव्य श्रुत
ज्ञाननो प्रवाह अच्छिन्नपणे वहेवामां आ सौराष्ट्र देश पण कारण छे.
(आ ‘षट्खंडागम’ शास्त्रो मूडबिद्रिनगरमां ताडपत्री उपर लखेलां सचवाई रह्या हतां अने शासनना महा–