Atmadharma magazine - Ank 034
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७२ : आत्मधर्म : १८७ :
तेथी ज नथी समजातुं. आ समज्या वगर अन्य कोई पण उपाय मुक्ति माटेनो नथी.
संसारना काममां डहापण करीने रागने पोषे, अने आत्मानी समजणनो प्रयत्न करवानी वात आवे
त्यां कहे के न समजाय; पण न समजाय ते कोना घरनी वात? तुं आत्मा छो के जड? जो आत्माने नहि
समजाय तो शुं जड समजशे? चैंतन्यना ज्ञानमां न समजाय एवुं कांई छे ज नहि. चैतन्यमां बधुं समजवानी
ताकात छे. ‘न समजाय’ ए वात जडना घरनी छे, ‘आत्मा न समजाय’ एम कहेनारने आत्मानी रुचि ज
नथी पण जडनी रुचि छे. मुक्तिनो रस्तो एक सम्यग्ज्ञान ज छे. अने संसारनो रस्तो पण एक अज्ञान ज छे.
प्रश्न:– आवा कपरा संजोगो वखते जो आत्मानुं समजवामां रोकाय तो पछी आजीविका अने धंधो केम
चलाववो?
उत्तर:– जेने आत्मानी रुचि नथी पण संयोगनी रुचि छे तेने ज आ प्रश्न ऊठे छे. आजीविका वगेरेनो
संयोग तो पूर्वना पुण्यना कारणे मळे छे, तेमां वर्तमान पुरुषार्थ–डहापण कार्यकारी नथी. पण आत्मानी
समजणमां पूर्वना पुण्य काम न आवे, अने वर्तमान पुण्य पण काम न आवे, ए तो पुरुषार्थ वडे अपूर्व अंतर
संशोधनोथी प्राप्त थाय छे, बाह्य संशोधनथी ते मळे तेम नथी. जो तने आत्मानी रुचि होय तो पहेलांं तुं ए
नक्की कर के कोई पण पर वस्तु मारी नथी, पर वस्तु मने सुख–दुःख करती नथी, हुं परनुं कांई करतो नथी. आम
बधा परनी द्रष्टि छोडीने स्वने जो. पोतानी पर्यायमां राग होय ते रागने कारणे पण परवस्तु मळती नथी माटे
राग निरर्थक छे–आम मान्यता थतां राग प्रत्येनो पुरुषार्थ लूलो थई जाय छे. परनी क्रियाथी जुदो तो जाण्यो तेथी
हवे अंतरमां रागथी जुदो जाणीने ते रागथी जुदो पडवानी क्रिया करवानुं रह्युं. आ रीते एक ज्ञानक्रिया ते ज
आत्मानुं कर्तव्य छे. परनी क्रिया तो आत्मा करी ज शकतो नथी. पण परथी जुदापणानुं भान करनार आत्मा छे,
अने प्रज्ञाछीणी वडे ज आत्मा बंधथी भिन्नपणे ओळखाय छे अने आ प्रज्ञाछीणी ज मोक्षनो उपाय छे.
– अनादिथी जीवे शुं कर्युं? अने हवे शुं करवुं? –
अनादिथी आज सुधी कोई पण क्षणमां कोई जीवे परनुं कांई कर्युं ज नथी, मात्र स्वनुं लक्ष चूकीने परनी
चिंता ज करी छे. हे भाई! जेटली तुं तारा तत्त्वनी भावना छोडीने पर तत्त्वनी चिंता कर ते चिंतानो बोजो
तारा उपर छे, ते चिंतानुं तने दुःख छे, पण तारी ते चिंताने लीधे परनां कोई कार्य थतां नथी अने तारुं स्वकार्य
बगडे छे. माटे हे भाई! अनादिथी आज सुधीनी तारी पर संबंधीनी सर्व चिंता खोटी थई–निष्फळ गई... माटे
हवे प्रज्ञावडे तारुं भिन्न स्वरूप जाणीने तेमां एकाग्र था. परनी चिंता करवी ते तारुं स्वरूप नथी.
तुं परवस्तुने भेगी मानीने तेनी चिंता कर तोपण परवस्तुओनुं तो जे परिणमन थवानुं छे ते ज थशे.
अने तुं परवस्तुने भिन्न जाणीने तेनुं लक्ष छोडी दे तोपण तेओ तो स्वयं परिणम्या ज करशे. तारी चिंता हो के
न हो तेनी साथे पर द्रव्योना परिणमनने कांई संबंध नथी.
अनादिथी आत्माए परनुं कांई कर्युं नथी, मात्र परनी चिंता पोताने भूलीने करी छे. पण हे आत्मा!
शरूआतथी छेडा सुधीनी तारी चिंता निष्फळ गई, माटे हवे तो स्वरूपनी भावना कर, हवे शरीरादि परवस्तुनी
चिंता छोडी स्वने जो. स्वने ओळखतां परनी चिंता छुटी जशे अने आत्मानी शांति अनुभवाशे. तारे तारा
धर्मनो संबंध आत्मा साथे राखवो छे के पर साथे? आत्माना धर्मनो संबंध कोनी साथे छे ते अहीं समजाव्युं छे.
गमे त्यां होउं पण मारी पर्यायनो संबंध मारा द्रव्य साथे छे, बहारना संयोग साथे नथी. गमे ते क्षेत्रे
पण आत्मानो धर्म तो आत्मामांथी ज उत्पन्न थाय छे. शरीरमांथी–संयोगमांथी धर्मनी उत्पत्ति थती नथी.
आवी स्वाधीनतानी श्रद्धा अने ज्ञान करे तेने कये ठेकाणे आत्मा साथे संबंध न होय? अने आवी श्रद्धा ज्ञान
होय ते कया ठेकाणे शरीरादिनो संबंध माने? स्वभावनो संबंध तूटे नहि अने परनो संबंध क्यांय माने नहि–
बस, आ ज धर्म छे.
एक सेकंड मात्रनुं भेदज्ञान अनंत
भवनो नाश करीने मुक्ति पमाडे छे.
मुद्रक: चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय, दासकुंज, मोटा आंकडिया, काठियावाड
प्रकाशक: जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, मोटा आंकडिया. ता. २८ – ७ – ४६