Atmadharma magazine - Ank 034
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १८६ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७२ :
कहेतां कर्म वगेरे नडे ए वात उडाडी दीधी. कोई पण रीते एटले तुं तारामां पुरुषार्थ करीने प्रज्ञाछीणी वडे
भेदज्ञान कर. शरीरनुं गमे तेम थाय पण आत्मा ज प्राप्त करवो छे–ए ज एक कर्तव्य छे एम तीव्र झंखना अने
रुचि करीने सम्यग्ज्ञान कर. जेम वीजळीना झबकारामां सोय परोववी होय तो तेमां केटली एकाग्रता जोईए?
वीजळी थाय के तरत ज सोय परोवी ले, त्यां एक सेकंड मात्रनो प्रमाद न करे, तेम चैतन्यमां सम्यग्ज्ञानरूपी
दोरो परोववा माटे चैतन्यनी एकाग्रता अने झंखना जोईए. अहो! आ चैतन्य–भगवानने ओळखवानां टाणां
मळ्‌यां छे, क्षण क्षण लाखेणी जाय छे, आत्मभान वगर उगरवानो क्यांय आरो नथी माटे अत्यारे ज कोई पण
प्रकारे आत्मभान करवुं छे. एम स्वभावनी रुचि प्रगट करतां विकारनो महिमा टळे छे. आ विकार ते मारा
चैतन्यनी शोभा नथी पण कलंक छे, मारुं चैतन्य तत्त्व तेनाथी भिन्न असंगी छे–आ प्रमाणे निरंतर स्वभावनी
रुचि अने पुरुषार्थना अभ्यास वडे प्रज्ञाछीणीने पटकवी.
३. निपुण पुरुषोद्वारा–अहीं लौकिक निपुणनी वात नथी, पण स्वभावनो पुरुषार्थ करवामां निपुणतानी
वात छे. लौकिक बुद्धिमां निपुण होवा छतां तेने पोताने शंका रह्या करे के मारुं शुं थशे? तेम “तीव्रकर्मो उदयमां
आवशे तो मारुं शुं थशे? मारे हजी घणा भव हशे तो? मने प्रतिकूळता आवी पडशे तो? ” एम जेने शंका
रह्या करे छे ते निपुण नथी पण नमालो–पुरुषार्थहीन छे; जे आवी पुरुषार्थहीनतानी वातो करे छे तेओ
प्रज्ञाछीणीनो घा मारी शकशे नहि, तेथी कह्युं छे के ‘निपुणपुरुषोद्वारा पटकवामां आवी थकी’ एटले जेने कर्मोना
उदयनुं लक्ष नथी पण एकला स्वभावनी प्राप्तिनुं ज लक्ष छे अने पोताना स्वभावनी प्राप्तिना पुरुषार्थना जोरे
जेने मुक्तिनी निःसंदेहता छे एवा निपुण पुरुषो ज तीव्र पुरुषार्थवडे प्रज्ञाछीणी पटकीने भेदविज्ञान करे छे.
४. सावधान थईने–एटले प्रमाद अने मोहने दूर करीने पटकवी. जो एक क्षण पण चैतन्यनो सावधान
थईने अभ्यास करे तो अवश्य भेदज्ञान अने मोक्ष पामे ज. जे चैतन्यमां सावधान छे तेने कर्मना उदयनी शंका
होती ज नथी. अनादिथी विकारने पोतानुं स्वरूप मानीने असावधान थयो हतो तेने बदले हवे चैतन्य
स्वरूपना लक्षे सावधान थईने विकारनुं लक्ष छोडी दीधुं;–एटले हवे विकार थाय तोपण ‘ते मारा चैतन्य
स्वरूपथी भिन्न छे’ एम सावधान थईने आत्मा अने बंधनी वच्चे प्रज्ञाछीणीने पटकवी.
‘प्रज्ञाछीणी पटकवी’ एटले शुं? के सम्यग्ज्ञानने आत्मामां एकाग्र करवुं. आ चैतन्य स्वरूप हुं आत्मा
अने आ पर तरफ जती लागणी ते राग–एम आत्मा अने बंधनी जुदापणानी सांध जाणीने, ज्ञानने चैतन्य
स्वभावी आत्मामां एकाग्र करतां रागनुं लक्ष छूटी जाय छे–ते ज प्रज्ञाछीणीनुं पटकवुं छे.
५. प्रज्ञाछीणी शीघ्र पडे छे–प्रज्ञाछीणी पडतां वार लागती नथी पण जे क्षणे चैतन्यमां एकाग्र थयो ते ज
क्षणे राग अने आत्मा भिन्नपणे अनुभवाय छे. अत्यारे न थई शके–ए वात ज नथी, आ तो दरेक क्षणे थई
शके छे.
प्रज्ञाछीणी पडतां शुं थाय छे अर्थात् प्रज्ञाछीणी केवी रीते पडे छे? अंतरमां जेनुं चैतन्य ते ज स्थिर छे
एवा ज्ञायकभावने ज्ञायकपणे प्रकाशमान करे छे. ‘हुं ज्ञान छुं’ एवो विकल्प पण अस्थिर छे, ते विकल्पने
तोडीने सम्यग्ज्ञान एकला चैतन्यमां मग्न थाय छे; रागथी छूटुं पडीने ज्ञान चैतन्यमां स्थिर थाय छे, ए रीते
चैतन्यमां मग्न थती निर्मळपणे पडे छे–अने जेटली पुण्य–पापनी वृत्तिओनुं उत्थान ते सर्वेने बंधभावमां
निश्चळ करे छे. आ रीते आत्माने आत्मामां मग्न करती अने बंधने अज्ञानभावमां नियत करती प्रज्ञाछीणी पडे
छे–आ ज पवित्र सम्यग्दर्शन छे.
प्रज्ञाछीणी पडे छे–ए संबंधी अहीं क्रमथी वात करी छे, समजाववा माटे क्रमथी कथन कर्युं छे परंतु
खरेखर अंतरमां क्रम पडता नथी, पण एक साथे ज विकल्प तूटीने ज्ञान स्वमां एकाग्र थाय छे. जे समये ज्ञान
स्वमां एकाग्र थयुं ते ज समये रागथी जुदुं पड्युं. परंतु पहेलांं ज्ञान स्वमां ढळ्‌युं अने पछी राग जुदो पड्यो–
एम क्रम पडता नथी.
प्रश्न:– आ तो समजवुं अघरूं लागे छे, आ सिवाय बीजो कोई मार्ग छे?
उत्तर:– अरे भाई, बहारमां तो मोटा पगार अने घणी बुद्धि चलावे छे, त्यां बधुंय समजाय छे अने
बुद्धि चाले छे, अने आ पोताना आत्मानी वात समजवामां बुद्धि न चाले ए केम बने? पोताने आत्मानी
दरकार नथी अने समजवानी रुचि नथी