भेदज्ञान कर. शरीरनुं गमे तेम थाय पण आत्मा ज प्राप्त करवो छे–ए ज एक कर्तव्य छे एम तीव्र झंखना अने
रुचि करीने सम्यग्ज्ञान कर. जेम वीजळीना झबकारामां सोय परोववी होय तो तेमां केटली एकाग्रता जोईए?
वीजळी थाय के तरत ज सोय परोवी ले, त्यां एक सेकंड मात्रनो प्रमाद न करे, तेम चैतन्यमां सम्यग्ज्ञानरूपी
मळ्यां छे, क्षण क्षण लाखेणी जाय छे, आत्मभान वगर उगरवानो क्यांय आरो नथी माटे अत्यारे ज कोई पण
प्रकारे आत्मभान करवुं छे. एम स्वभावनी रुचि प्रगट करतां विकारनो महिमा टळे छे. आ विकार ते मारा
चैतन्यनी शोभा नथी पण कलंक छे, मारुं चैतन्य तत्त्व तेनाथी भिन्न असंगी छे–आ प्रमाणे निरंतर स्वभावनी
रुचि अने पुरुषार्थना अभ्यास वडे प्रज्ञाछीणीने पटकवी.
आवशे तो मारुं शुं थशे? मारे हजी घणा भव हशे तो? मने प्रतिकूळता आवी पडशे तो? ” एम जेने शंका
रह्या करे छे ते निपुण नथी पण नमालो–पुरुषार्थहीन छे; जे आवी पुरुषार्थहीनतानी वातो करे छे तेओ
उदयनुं लक्ष नथी पण एकला स्वभावनी प्राप्तिनुं ज लक्ष छे अने पोताना स्वभावनी प्राप्तिना पुरुषार्थना जोरे
जेने मुक्तिनी निःसंदेहता छे एवा निपुण पुरुषो ज तीव्र पुरुषार्थवडे प्रज्ञाछीणी पटकीने भेदविज्ञान करे छे.
होती ज नथी. अनादिथी विकारने पोतानुं स्वरूप मानीने असावधान थयो हतो तेने बदले हवे चैतन्य
स्वरूपना लक्षे सावधान थईने विकारनुं लक्ष छोडी दीधुं;–एटले हवे विकार थाय तोपण ‘ते मारा चैतन्य
स्वरूपथी भिन्न छे’ एम सावधान थईने आत्मा अने बंधनी वच्चे प्रज्ञाछीणीने पटकवी.
स्वभावी आत्मामां एकाग्र करतां रागनुं लक्ष छूटी जाय छे–ते ज प्रज्ञाछीणीनुं पटकवुं छे.
शके छे.
तोडीने सम्यग्ज्ञान एकला चैतन्यमां मग्न थाय छे; रागथी छूटुं पडीने ज्ञान चैतन्यमां स्थिर थाय छे, ए रीते
निश्चळ करे छे. आ रीते आत्माने आत्मामां मग्न करती अने बंधने अज्ञानभावमां नियत करती प्रज्ञाछीणी पडे
छे–आ ज पवित्र सम्यग्दर्शन छे.
स्वमां एकाग्र थयुं ते ज समये रागथी जुदुं पड्युं. परंतु पहेलांं ज्ञान स्वमां ढळ्युं अने पछी राग जुदो पड्यो–
एम क्रम पडता नथी.
उत्तर:– अरे भाई, बहारमां तो मोटा पगार अने घणी बुद्धि चलावे छे, त्यां बधुंय समजाय छे अने
दरकार नथी अने समजवानी रुचि नथी