: श्रावण : २४७२ : आत्मधर्म : १८५ :
ज ऊभो रह्यो; विकारचक्रमां आटा मार्या परंतु विकारथी छूटीने ज्ञानमां आव्यो नहि, तो तें शुं कर्युं?
ज्ञान वगर गमे तेटलो राग घटाडे के त्याग करे परंतु साची समजण वगर तेने सम्यग्दर्शन तो थशे नहि
अने मुक्तिमार्ग तरफ तो नहि जाय परंतु विकारमां अने जडनी क्रियामां कर्तृत्वना अहंकार करीने संसारमार्गमां
दुर्गतिमां धसी पडशे. साचा ज्ञान वगर कोई पण रीते आत्मानी मुक्तदशानो मार्ग आवे नहि. जेमणे
आत्मभान कर्युं तेओ त्याग के व्रत कर्या वगर एकावतारी थई गया.
– संसारनुं मूळ –
आत्माना स्वभावनो मार्ग सरळ होवा छतां केम नथी समजातो? तेनुं कारण ए छे के अज्ञानीने
अनादिथी आत्मा अने रागना एकपणानो व्यामोह छे, भ्रम छे, गांडपण छे. जेने अंतरमां रागरहित
स्वभावनी द्रष्टिनुं जोर छे ते आत्माना अनुभवनी साची प्रतीतने लीधे एक भवे मोक्ष जशे, अने जेने
आत्मानी साची प्रतीत नथी एवो अज्ञानी छ छ मास तप करीने मरी जाय तोय आत्माना भान वगर एक
पण भव घटे नहि केमके तेने आत्मा अने रागना एकपणानो व्यामोह छे, ते व्यामोह ज संसारनुं मूळ छे.
– अज्ञान टाळवानो उपाय –
हवे पूछे छे के अज्ञानीनो ते व्यामोह कोई रीते छेदी शकाय के नहि? उत्तरमां कहे छे के हा, प्रज्ञारूपी
छीणी वडे ते जरूर छेदी शकाय छे. जेम अंधकार टाळवानो उपाय प्रकाश ज छे तेम अज्ञान टाळवानो उपाय
सम्यग्ज्ञान ज छे. [व्यामोह=अज्ञान. प्रज्ञाछीणी=सम्यग्ज्ञान.] हजारो उपवास करवा, लाखो रू।. नुं दान
करवुं–ए वगेरे कोई उपाय आत्मासंबंधी अज्ञान टाळवा माटेना नथी पण आत्मा अने रागना जुदापणानुं
सम्यग्ज्ञान ते ज एकमात्र व्यामोह छेदवानो उपाय छे. आ ज उपायथी व्यामोह छेदीने आत्मा मुक्तिने पंथे
प्रयाण करे छे–एम ज्ञानीओ जाणे छे.
प्रज्ञाछीणी केवी रीते थाय अर्थात् सम्यग्ज्ञान केम प्रगटे? ज्ञान माटे तो कांईक बीजा साधननी जरूर
पडती हशे ने? –तो कहे छे के ना. ज्ञाननो उपाय ज्ञान ज छे. ज्ञाननो अभ्यास ते ज प्रज्ञाछीणी प्रगटवानुं
कारण छे. भक्ति, पूजा, व्रत, उपवास, त्याग वगेरेनो शुभराग ते प्रज्ञानो उपाय नथी. स्वभावनी रुचिपूर्वक
स्वभावनो अभ्यास करवो ते ज स्वभावनुं ज्ञान प्रगटवानो उपाय छे.
हवे श्री अमृतचंद्राचार्यदेव आ गाथाना आशयने श्लोक द्वारा कहे छे:–
[स्रग्धरा: क्यारे ए मानस्थंभे. ए राग.]
प्रज्ञाछेत्री िशतेयं कथमिप िनपुणैः पािता सावधानैः सूक्ष्मेऽन्तः संिधबंधे िनपतित रभसादात्मकमोर्भयस्य।
आत्मानं मग्नमंतः स्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे बंधं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती मिन्नभिन्नौ। १८१।
(आ श्लोकमां धीमी शांत हलक छे अने एमां भाव एवो छे के तारा चैतन्यस्वभावने अंतरमां
अवलोकवामां धीरो था धीरो; था!)
अर्थ:– आ प्रज्ञारूपी तीक्ष्ण छीणी प्रवीण पुरुषो वडे कोई पण प्रकारे–यत्नपूर्वक सावधानपणे (–
निष्प्रमादपणे) पटकवामां आवी थकी, आत्मा अने कर्म–बंनेना सूक्ष्म अंतरंग संधिना बंधमां (–अंदरनी
सांधना जोडाणमां) शीघ्र पडे छे. केवी रीते पडे छे? आत्माने तो जेनुं तेज अंतरंगमां स्थिर अने निर्मळपणे
देदीप्यमान छे एवा चैतन्यपूरमां (–चैतन्यना प्रवाहमां) मग्न करती अने बंधने अज्ञानभावमां निश्चळ (–
नियत) करती–ए रीते आत्मा अने बंधने सर्व तरफथी भिन्नभिन्न करती पडे छे.
आ कळशमां आत्मस्वभावनो पुरुषार्थ वर्णव्यो छे, भेदज्ञाननो उपाय दर्शाव्यो छे. आ कळशना भाव
खास परिणमाववा योग्य छे. १. तीक्ष्णछीणी, २. कोई पण रीते, ३. निपुणपुरुषोद्वारा, ४. सावधान थईने
पटकवामां आवी थकी ५. शीघ्र पडे छे–आ रीते, पुरुषार्थ बतावनारां पांच विशेषणो वापर्या छे.
१. तीक्ष्ण छीणी–जड शरीरमांथी विकारीरोगनुं ओपरेशन करवा माटे तीखां झीणां चमकता शस्त्रो आवे
छे तेम अहीं तो चैतन्यआत्मा अने रागादि विकार वच्चे ओपरेशन करीने ते बंनेने जुदां पाडवा छे, ते माटे
तीक्ष्ण ऊग्र प्रज्ञारूपी छीणी छे, अर्थात् सम्यग्ज्ञानरूपी पर्याय अंतर ढळीने स्वभावमां मग्न थाय छे अने राग
छूटो पडी जाय छे, ते ज भेदविज्ञान छे.
२. कोई पण रीते–पूर्वे कलश २३मां कह्युं हतुं के तुं कोई पण रीते–मरीने पण तत्त्वनो कौतूहली था! तेम
अहीं पण कहे छे के कोई पण रीते, आखा जगतनी दरकार छोडी दईने पण सम्यग्ज्ञानरूपी प्रज्ञाछीणीने आत्मा
अने बंध वच्चे पटकवी. ‘कोई पण रीते’