: १८४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७२ :
स्वभाव अने विकार वच्चे त्रिराळ पाडीने ज्ञान स्वमां वळ्युं, अनादिनुं ऊंधुंं परिणमन हतुं ते अटकीने हवे
स्वभाव तरफनुं परिणमन शरू थयुं. अहो! आमां स्वभावनो अनंत पुरुषार्थ छे.
– मंद कषाय ते बंधभाव ज छे –
रागद्वेष वखते अज्ञानीने ज्ञान जुदुं नहि देखातुं होवाथी तेणे आत्मा अने बंध वच्चे भेद जाण्यो नथी.
आत्मा अने बंध वच्चे भेद जाण्या वगर द्रव्यलींगी साधु थईने नवमी ग्रैवेयके जाय तेवा चारित्र पाळ्यां, अने
एवा मंद कषाय कर्या के बाळी मूके तोय क्रोध न करे, छ छ मास आहार न करे–छतां भेदज्ञानना अभावने लीधे
अनंत संसारमां ज रखडे. तेणे आत्मानुं कांई ज कर्युं नथी, मात्र बंधभावनो प्रकार फेरव्यो छे.
प्रश्न:– आटलुं बधुं कर्युं तोय कांई नहि?
उत्तर:– आटलुं बधुं कर्युं एम जेने लागे छे तेने मिथ्यात्वनुं जोर छे. बहारथी शरीरनी क्रिया वगेरे
उपरनी द्रष्टिथी जोनारने ‘आटलुं बधुं कर्युं’ एम लागे छे; पण ज्ञानीओ कहे छे के तेणे कांई ज अपूर्व कर्युं नथी,
मात्र बंधभाव ज कर्या छे, शरीरनी क्रियानो अने शुभरागनो अहंकार कर्यो छे. व्यवहारे कहो तो पुण्यभाव कर्या
छे अने परमार्थथी तो तेणे पाप ज कर्युं छे. राग के विकल्पथी आत्माने लाभ मानवो ते महा मिथ्यात्व छे तेने
भगवान पाप ज कहे छे. एक प्रकारनो बंधभाव छोडीने बीजा प्रकारनो बंध भाव कर्यो, परंतु बंधभावनी द्रष्टि
छोडीने अबंध आत्मस्वभावने ज्यांसुधी न ओळखे त्यांसुधी आत्मद्रष्टिए तेणे कांई कर्युं नथी. खरेखर तो
बंधभावनो प्रकार पण फर्यो नथी. केमके सर्व बंधभावोनुं मूळ एवुं मिथ्यात्व टाळ्युं नथी.
– बाह्य त्यागी – पण – अधर्मी –
अज्ञानी पोते खावा–पीवानो, वस्त्रनो, पैसानो ईत्यादि राग छोडी शकतो नथी तेथी बीजा कोई
अज्ञानीने बहारमां वस्त्र, पैसा वगेरेनो त्याग देखीने ‘तेणे घणुं कर्युं अने ते मारा करतां ऊंचो छे’ एम मानी
बेसे छे; परंतु ते जीव पण बहारमां त्यागी होवा छतां अंतरमां अज्ञाननुं महापाप सेवी रह्यो छे, ते पण तेनी
ज जातनो छे. अंतरनी ओळखाण वगर बहारथी माप काढे ते साचां न आवे.
– बाह्य अत्यागी – पण – धर्मात्मा –
उपर जेम त्यागी अज्ञानीनुं द्रष्टांत कह्युं, तेम तेनाथी ऊलटुं अत्यागी ज्ञानी विषे समजवुं. ज्ञानी
गृहस्थदशामां होय अने राग पण होय छतां अंतरमां सर्व परद्रव्यो प्रत्ये उदास भाव वर्ते छे, रागनुं पण
स्वामीत्व मानता नथी, ते धर्मात्मा छे. आवा धर्मात्माने अंतर ओळखाण वडे ओळखे नहि अने बहारथी
माप काढे तो ते आत्माने समज्या नथी. जेओ अंतरमां आत्मानी पवित्रदशा समजता नथी तेओ एकला
जडना संयोग उपरथी माप काढे छे. संयोग उपरथी तो धर्मी–अधर्मीनुं माप नथी परंतु रागनी मंदता उपरथी
पण धर्मी–अधर्मीनुं माप नथी. धर्मी–अधर्मीनुं माप तो अंतर अभिप्राय उपरथी छे.
बाह्य त्यागी अने मंदरागी होवा छतां जे बंधभावने पोतानुं स्वरूप माने छे ते अधर्मी छे. अने
बाह्यमां राजपाटना संयोग होय अने राग विशेष टळ्यो न होय छतां अंतरमां बंधभावथी भिन्न पोताना
स्वरूपनुं भान छे ते धर्मी छे. शरीरनी क्रियाथी, बहारना त्यागथी के रागनी मंदताथी जेणे आत्मानी महत्ता
मानी तेणे शरीरथी भिन्न, संयोगथी रहित अने विकार रहित एवा आत्म स्वभावनुं खून कर्युं छे, ते महापापी
छे, स्वभवानी हिंसानुं पाप सौथी मोटुं छे.
बहारनो घणो त्याग अने घणो शुभराग करीने एम माने के हवे आनाथी मुक्त थई जशे. पण भाई
रे!! तें आत्माना धर्मनो रस्तो ज हजी जाण्यो नथी, तो पछी मुक्ति तो क्यांथी थाय? अंतर स्वभावना ज्ञान
वगर अंतरनी शांति नहि आवे अने विकारभावनी आकूळता नहि टळे.
– सम्यग्ज्ञान एज सरळ मार्ग छे –
आत्मानो स्वभाव समजवानो पंथ सीधो–सरळ छे. साचो मार्ग जाणीने धीमे धीमे चालवा मांडे तोपण मार्ग
कपाय, परंतु मार्ग जाण्या वगर आंखे पाटा बांधी घांचीना बळदनी जेम गमे तेटलुं चाले तोपण फरी फरीने हतो त्यां
ने त्यां ज ऊभो रहे. तेम स्वभावनो सरळ मार्ग छे ते जाण्या विना ज्ञानचक्षुओ बंध करीने गमे ते आडुं अवळुं
कर्या करे अने में घणुं कर्युं एम माने, पण ज्ञानीओ कहे छे के भाई तें कांई नथी कर्युं, तुं संसारमां ने संसारमां ज
ऊभो छो, जराय आगळ वध्यो नथी. विकार रहित तारा ज्ञान स्वरूपने तें जाण्युं नथी एटले तारुं गाडुं दोडावीने बहु
तो अशुभभांथी शुभ करीने तेमां धर्म मानी ले छे, परंतु ए तो फरी फरीने पाछो त्यां ने त्यां विकारमां