तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेणे रागरहित आत्माना ज्ञान–सामर्थ्यने ओळख्युं नथी. व्रतनो शुभ विकल्प उठयो ते
वखते आत्माना ज्ञाननी पर्यायनुं सामर्थ्य ज एवुं खील्युं छे के ते ज्ञान आत्माना स्वभावने पण जाणे अने
विकल्पने पण जाणे. ते पर्यायमां विकल्पनुं ज ज्ञान होय, बीजुं होय ज नहि; परंतु त्यां जे विकल्प छे ते
चारित्रनुं साधन नथी पण जे ज्ञान सामर्थ्य खील्युं छे ते ज्ञान ज पोते चारित्रनुं साधन छे. तारी ज्ञायक पर्याय
ते ज तारी शुद्धतानुं साधन छे अने व्रतनो राग ते तो तारी ज्ञायकपर्यायनुं ते समयनुं ज्ञेय छे. महाव्रतनो
विकल्प उठयो माटे चारित्र प्रगट्युं एम नथी परंतु ज्ञान ते वृत्तिने अने स्वभावने बंनेने भिन्न जाणीने
स्वभाव तरफ ढळ्युं तेथी ज चारित्र प्रगट्युं छे. वृत्ति तो बंधभाव छे अने हुं तो ज्ञायक छुं एम ज्ञायकभावनी
द्रढताना जोरे वृत्तिने तोडीने ज्ञान पोताना स्वरूपमां लीन थाय छे अने क्षपकश्रेणी मांडीने केवळज्ञान अने मोक्ष
पामे छे. आथी प्रज्ञारूपी छीणी ते ज मोक्षनुं साधन छे.
ने! ” तो ते ज्ञाननुं स्वरूप ज समज्यो नथी. भाई, जेना पुरुषार्थनो प्रवाह ज्ञान प्रत्ये ढळ्यो तेना पुरुषार्थनो
प्रवाह विकार प्रत्येथी अटकी गयो एटले तेने क्षणे क्षणे विकारनो नाश ज थाय छे. साधकदशामां जे जे विकारनी
लागणी ऊठे छे ते ते ज्ञानमां जणाईने छूटी जाय छे, पण रहेती नथी. आ रीते क्रमबद्ध दरेक पर्यायमां ज्ञाननुं
वलण स्वभावमां वळतुं जाय छे अने विकारथी छूटतुं जाय छे. “विकार भले थाय” ए भावना मिथ्याद्रष्टिनी ज
छे. ज्ञानी तो जाणे छे के कोई विकार मारुं स्वरूप ज नथी तेथी ते ज्ञाननी ज भावना करे छे अने विकार तरफथी
तेनो पुरुषार्थ पाछो खेंचाई गयो छे. ज्ञाननी अस्तिमां विकारनी नास्ति छे.
ज्ञाननुं ज सामर्थ्य छे. आवा स्वाश्रय ज्ञाननी प्रतीत, रुचि, श्रद्धा अने स्थिरता सिवायना बीजा बधाय उपाय
आत्महित माटे नकामा छे. अहो! पोताना परिपूर्ण स्वाधीन स्वतत्त्वना सामर्थ्यनी प्रतीत वगर जीव पोतानी
स्वाधीनदशा क्यांथी लावशे? स्वनी प्रतीतवाळो स्वमां ढळशे अने मुक्ति पामशे, अने जेने स्वनी प्रतीत नथी
ते विकारमां ढळशे अने संसारमां रखडशे.
स्वीकार करतुं नथी एवुं भेदज्ञान वृत्तिओने तोडतुं तोडतुं, स्वरूपनी एकाग्रता वधारतुं वधारतुं, मोक्षमार्ग पूर्ण
करीने मोक्षरूपे परिणमी जय छे. आवा पूरा ज्ञान स्वभाव सामर्थ्यनुं जोर जेने प्रतीतमां बेठुं तेने अल्पकाळमां
मोक्ष ज छे. मोक्षनुं मूळ भेदविज्ञान ज छे. रागने जाणीने रागथी जुदुं रहेनार ज्ञान मोक्ष पामे छे, अने रागने
जाणतां रागमां अटकी जनारूं ज्ञान बंधाय छे. ज्ञानीने प्रज्ञाछीणीनुं जोर छे के–आ लागणीओ तो क्षणे क्षणे
चाली ज जाय छे अने लागणी रहित मारुं ज्ञान वधतुं ज जाय छे. अज्ञानीने एम थाय छे के–अरे मारा ज्ञानमां
आ लागणी थई, अने लागणी साथे मारुं ज्ञान पण चाल्युं जाय छे. अज्ञानीने राग अने ज्ञान वच्चे
अभेदबुद्धि (एकत्वबुद्धि) छे ते मिथ्याज्ञान छे, ज्ञानीए प्रज्ञाछीणीवडे राग अने ज्ञानने जुदा ओळख्या छे–ते
सम्यग्ज्ञान छे. ज्ञान ज मोक्षनो उपाय छे अने ज्ञान ज मोक्ष छे. जे सम्यग्ज्ञान साधकदशापणे हतुं ते ज
सम्यग्ज्ञान वधीने साध्यदशारूपे थाय छे. आ रीते ज्ञान ज साधक–साध्य छे. आत्माने पोताना मोक्ष माटे
पोताना गुण साथे संबंध होय के परद्रव्यो साथे होय? आत्माने पोताना ज्ञान साथे ज संबंध छे, परद्रव्य साथे
आत्माना मोक्षनो संबंध नथी. आत्मा परथी तो छूटो छे ज, पण अहीं तो विकारथी पण छूटो–एम अंतरमां
भेदज्ञान करावे छे. विकारथी आत्मानो भेद पाडवो ते ज विकारना नाशनो उपाय छे. रागनी क्रिया मारा
स्वभावमां नथी एम स्वभाव सामर्थ्यनो सम्यग्ज्ञानवडे स्वीकार कर्यो त्यां विकारनो ज्ञाता ज थई गयो. जेम
पर्वतमां वीजळी पडता त्रिराळ पडी जाय तेम प्रज्ञारूपी छीणी पडतां