Atmadharma magazine - Ank 034
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।
वर्ष त्रीजुं संपादक श्रावण
रामजी माणेकचंद दोशी
अंक दस वकील २४७२
• साची समजणनुं फळ •
(समयसारजी गाथा २९५ ना व्याख्यानमांथी)
प्रश्न:– पर वस्तुओ आत्माथी जुदी छे एम समजवाथी
शुं लाभ?
उत्तर:– हुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं अने परवस्तुओ
माराथी जुदी ज छे–एटले मारामां परने सुख–दुःख करवानी
ताकात त्रणकाळ त्रणलोकमां नथी अने मारुं सुख के दुःख
परवस्तुने आधीन नथी–आवुं भान थतां पुण्य–पाप रहित
आत्मस्वभाव छे एम ख्यालमां आवे छे; केम के पुण्य–पापना
भाव परलक्षे ज थाय छे. ज्यां परना संबंधनो ज पोते नकार
कर्यो त्यां परना लक्षे थता भावोनो पण निषेध थयो एटले
एकलो ज्ञानस्वभाव ज रह्यो. परथी जुदो एटले के पोताना
ज्ञानस्वरूपमां पूरो. पोताना ज्ञानस्वभावना भान वगर
यथार्थपणे परथी अने विकारथी जुदापणुं मानी शके नहि.
स्वने अने परने कांई संबंध नथी–एम नक्की थतां पर
तरफना वलणवाळी कोई शुभ के अशुभ वृत्ति ते मारुं स्वरूप
नथी–एम जाणीने एकत्व स्वभावमां स्थिरता करवी ते ज
बंधन छोडीने मुक्त थवानो उपाय छे.
वार्षिक लवाजम छुटक अंक
अढी रूपिया चार आना
• आत्मधर्म कार्यालय – मोटा आंकडिया – काठियावाड •