Atmadharma magazine - Ank 034
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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[समयसारजी – मोक्ष अधिकारना व्याख्यानमांथी]
– गाथा – २९६ –
: १७४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७२ :
मिथ्याद्रष्टिना चिन्ह
‘स्वरूपनो अनुभव कठण छे’ एम माननार बहिरात्मा छे. पोतानुं चैतन्य स्वरूप शुद्ध छे, पुण्य–पाप
रहित छे–तेनो अनुभव कठण छे एम वृत्तिमां लीधुं त्यां शुद्धस्वरूपमां ढळवानो नकार आव्यो अने बंधन तरफ
ढळवानुं जोर आव्युं. अरे भाई! पोताना आत्मानुं स्वरूप ते कठण होय!!! ज्यारे नवराश मळे त्यारे परनी
वात होंशथी करे छे पण ते वखते स्वभावनी वात करे तो कोण रोके छे? पण पोताने पोताना स्वरूपनी रुचि
नथी अने जन्म–मरणनो भय नथी तेथी पोताना स्वरूप तरफ ढळवाना प्रयत्नने शल्य मारीने स्वरूपने ज
कठण माने छे. पोताना स्वभावनी समजण अने अनुभवने कठण मानीने ते तरफनो उत्साह छोडी दीधो अने
शुभ–अशुभभावनो उत्साह आवे छे, तेणे विकारने सहेलो मान्यो अने स्वभावने कठण मान्यो. ते स्वभावनो
अनादर करनार मिथ्याद्रष्टि ज छे.
पोताना स्वभावनी रुचि छूटया वगर अने विकारनी रुचि थया वगर ‘स्वभाव कठण अने विकार
सहेलो’ एम अंतरथी मनाय ज नहि. अंतरथी एटले के रुचिथी, होंशथी. बोधिदुर्लभ भावना भावतां धर्मनी
दुर्लभता विचारे, त्यां स्वरूपनी अरुचि नथी पण धर्म प्रत्येनी पोतानी रुचि अने पुरुषार्थने वधारवा माटे ते
भावना करे छे. ‘धर्म अत्यंत दुर्लभ छे’ एम धर्मनो प्रयत्न छोडी देवा माटे कह्युं नथी परंतु दुर्लभ छे माटे ते
तरफना पुरुषार्थमां विशेष जागृति राखवा माटे ते कथन छे. जे खरेखर स्वभावने कठण मानीने स्वभावनो
पुरुषार्थ छोडे छे ते स्वभावनो अनादर करनार अने विकारनो आदर करनार मिथ्याद्रष्टि छे.
कोई एम कहे के बाह्य संयोगो स्वरूप साधवामां नडे छे, तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. स्वरूपनुं साधन
पोताने करवुं नथी तेथी बहिरद्रष्टि वडे बहारना दोष काढे छे. परंतु कोई बाह्य संयोगो स्वरूप साधवामां रोकता
नथी. भरत चक्रवर्ती वगेरेने तो घणो बाह्य संयोग हतो छतां तेओने स्वभावसाधन नित्य वर्ततुं हतुं. अत्यारे
तो तेटलो संयोग कोईने छे नहि. जेनी रुचि–वृत्ति बहारमां ज घोलाया करे छे ते ज स्वरूपने कठण माने छे,
पण जो आत्मानी रुचि करीने पोते स्वरूप समजवा मागे तो स्वरूप अवश्य समजाय तेवुं छे. समजवुं ते तो
आत्मानो स्वभाव छे; जडने कांई ज न समजाय; परंतु चैतन्यने तो बधुं ज समजाय, एवो तेनो स्वभाव छे.
पोतानुं स्वरूप समजवुं ते पोतानो स्वभाव ज छे अने तेथी ते जरूर थई शके छे.
वळी कोई बहिरद्रष्टि एम कहे छे के प्रतिकूळ संयोगो स्वरूप समजवामां नडे छे. तेनी वात पण जुठ्ठी छे.
कोई संयोगो आत्माने प्रतिकूळ छे ज नहि. अरे भाई! स्वरूपनी ऊंधी समजण करीने ऊंधा भव करी रह्यो छो ते
भावमां तने प्रतिकूळ संयोगो नथी नडता, अने स्वरूपनी समजणना–सवळा भाव करवामां तने प्रतिकूळ संयोगो
नडे छे? वाह! पोताने जे करवुं नथी तेमां संयोगोनो वांक काढे छे, अने पोताने जे रुचे छे ते करे छे, तेमां तो
संयोगोनी प्रतिकूळताने संभारतो नथी. आत्मानी रुचि करवामां संयोग नडे अने संसारनी रुचि करवामां संयोग
न नडे–ए वात क्यांनी? सातमी नरकमां अनंत प्रतिकूळताना गंज बाह्यमां होवा छतां त्यांना जीव पण
स्वरूपनी रुचि करीने धर्म पामी शके छे. अहीं तो तेना अनंतमां भागे प्रतिकूळता पण नथी. परंतु पोताने
आत्मानी दरकार नथी तेथी संयोगनो दोष काढे छे. जो पोते समजवा मागे तो गमे त्यारे समजी शकाय छे.
पर वस्तुओनो संयोग वियोग थवो ते तो पूर्वना पुण्य–पाप अनुसार छे, तेनो कर्ता आत्मा नथी, पण
संयोगनी अने विकारनी रुचिनो नाश करीने पोताना स्वभावमां वाळवुं ते तो पोताना पुरुषार्थने आधीन छे.
पोताने पुरुषार्थ करवामां कोई निमित्त के संयोग नडता नथी. पोते सत् समजवानी रुचि करे त्यारे सत्ने
अनुकूळ निमित्त स्वयं होय ज छे.
आत्मधर्म अंक ३ सुधारो
१. पानुं १६२ मां बोल नं. ८२ थी ८६ मां ‘स. पा. ३०४–३०५ फ्रुटनोट’ एम लखेल छे तेने
बदले ‘स. पा. ३६९ फ्रुटनोट’ एम वांचवुं.
२. पानुं १६८ कोलम. ३ लाईन ९–१० मां “देव ते समकिती न होवाथी दुःखी ज छे व्यवहारे
कारणके...” एम लखेल छे तेने बदले “देव ते समकिती न होवाथी दुःखी ज छे, कारणके...” एम वांचवुं.