Atmadharma magazine - Ank 035
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४७२ : आत्मधर्म : २०७ :
समयसार–मोक्ष अधिकारना व्याख्यानमांथी
गाथा–२९६
प्रश्न:– जे जीवने पोताना भावमां साची अहिंसा प्रगटी होय तेने बीजो कोई जीव मारवा आवी शके
खरो? तेनी अहिंसाना प्रभाव वडे सामो जीव पण अहिंसक बनी जाय–एवो अहिंसानो प्रभाव पडे के नहि?
उत्तर:– ना. एक द्रव्यनी असर बीजा द्रव्य उपर कदी पडी शके ज नहि केम के दरेक द्रव्यो स्वतंत्र छे. एक
जीवनी अहिंसानो प्रभाव बीजा जीव उपर पडी शके ज नहि. एक जीवने अहिंसा प्रगटी तेथी बीजा जीवने तेने
दुःख देवानो भाव न ज थाय एम नथी. जेमने अंतरमां भाव अहिंसा प्रगटी छे एवा धर्मात्मा संत मुनिओ
स्वरूपना ध्यानमां लीन होय अने सिंह क्रूर भावे तेमना शरीरने खाई जता होय–एम पण बने छे. त्यां
मुनिप्रभुना अहिंसकभावमां कांई दोष नथी. बहारमां शरीर खावानी क्रिया ते हिंसा नथी परंतु अंतरमां
क्रूरभाव ते हिंसा छे. पोतानी अहिंसानुं फळ पोताना आत्मामां निराकूळ शांतिरूपे आवे छे अने पोताना
हिंसकभावनुं फळ पोताना आत्मामां आकूळता अशांतिरूपे आवे छे. नरकादिनो संयोग थवो ते तो परवस्तु छे,
तेनुं वेदन आत्माने नथी पण जेवा भाव पोते करे तेवा भावने पोते ते ज वखते भोगवे छे. हिंसानुं फळ
नरक–एम कहेवाय छे ते तो बहारना संयोगोनुं ज्ञान कराववा माटे कहेवाय छे.
पर जीवने मारवो ते हिंसा अने पर जीवने न मारवो ते अहिंसा–एवी व्याख्या साची नथी. पुण्य–पाप
मारां एवी मान्यता ते ज हिंसा छे अने पुण्य–पाप भाव मारुं स्वरूप नथी, हुं तो तेनो पण ज्ञाता ज छुं–एवी
मान्यता ते ज अहिंसा छे, पुण्य–पापना भाव रहित स्वरूप समजीने पोताना स्वभावमां ठरी जाय अने पुण्य–
पाप रहित अहिंसा प्रगटे तेथी बीजा प्राणीने तेनी असरथी कांई लाभ थाय–ए वात साची नथी. एक जीव
पोतानुं स्वरूप समजीने अहिंसाभाव प्रगट करे तेथी तेने लीधे बीजो जीव पण तेनी मान्यता फेरवी नाखे एम
बनतुं नथी, केमके दरेक जीव स्वतंत्र छे. जो जीव पोते पोताना भाव न फेरवे तो त्रण जगतमां कोई अन्य तेना
भावने फेरववा समर्थ नथी.
जो महानमां महान पुरुष श्री तीर्थंकरदेवनी द्रष्टि पडे तो आ आत्माने धर्मनो लाभ थई जाय ए वात
पण खोटी ज छे. साक्षात् तीर्थंकरदेव पण आ आत्माने सहायक नथी. केम के जो जीव पोते पोताना ज्ञान वडे
स्वभावने ओळखे अने तीर्थंकरदेव जेवा निमित्तनुं लक्ष पण छोडीने ज्यारे स्वभावनुं लक्ष करे त्यारे तेने
सम्यग्दर्शन–धर्म प्रगटे छे. परंतु जो पोते सम्यग्ज्ञान करे नहि तो लाखो वर्ष तीर्थंकर पासे रहेवा छतां पण
किंचित् धर्मलाभ पामे नहि. सामे तीर्थंकरदेव तो संपूर्ण वीतराग छे छतां आ जीव पोते ऊंधी मान्यतारूप
अनंती हिंसा न टाळे तो तीर्थंकरदेव शुं करे?
समोसरणमां सिंह अने हरण ईत्यादि जातिविरोधी प्राणीओ पण एक बीजाने उपद्रव करता नथी; ते
खरेखर तीर्थंकरदेवनी अहिंसानो प्रभाव नथी परंतु समोसरणमां आवनारा ते जीवो ज मंदकषायी होय छे तेथी
तेओ पोतानी ज पात्रताथी एकबीजाने उपद्रव करता नथी. भगवानना पुण्यनो महिमा बताववा माटे तेने
भगवाननो अतिशय कहेवाय छे. पण खरेखर भगवाननी असर पर जीवो उपर पडती नथी.
देव–गुरु–शास्त्रनुं लक्ष ते विकल्प छे–उदयभाव छे, तेनाथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी, पण विकल्परहित
अखंड ज्ञानस्वरूप छुं एम प्रज्ञावडे स्वभावनी प्रतीत करवी ते सम्यग्दर्शन छे अने प्रज्ञावडे आत्माना
स्वभावने अने बंधभावने (–उदयभावने) जुदा जाणवा ते सम्यग्ज्ञान छे तथा बंधभावनुं लक्ष छोडीने
स्वभावमां स्थिर थवुं ते सम्यक्चारित्र छे. आ सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ते ज अहिंसाभाव छे
अने तेनुं फळ आत्मामां ज समाय छे, बहारमां तेनुं फळ आवतुं नथी.
जगतनी दरेक वस्तु संपूर्ण स्वाधीन छे, स्व अने पर पदार्थो स्वतंत्र छे, कोई एकबीजा उपर असर करता
नथी; आवी स्वाधीन तत्त्वद्रष्टि अज्ञानीने समजाती नथी, अने पराधीनद्रष्टिथी ज अनंतसंसारमां रखडयो छे.
भगवानश्री कुंदकुंदप्रभु स्वाधीन स्वभावद्रष्टि समजावे छे के तुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छो, परथी अने पुण्य–पापथी
भिन्न तारूं स्वरूप छे–एम प्रज्ञावडे स्व–परनी वहेंचणी करीने तुं तारा स्वभावने जो, अने पराधीनपणानी
मान्यता छोड! तारा स्वाधीन स्वभावने कोईनी मदद नथी. तारा घरनी मूडी छे ते उघाडीने जो, तारा ज
स्वभावमां प्रज्ञा छे ते प्रज्ञावडे तारा स्वभावने तुं परथी भिन्नपणे अनुभव. तारा स्वभावनो अनुभव करवामां
तने कोई अंतराय कर्म रोकतुं नथी परंतु ‘हुं रागी–द्वेषी छुं, राग–द्वेष मारुं कर्तव्य छे’ एवी ऊंधी मान्यता ते ज
स्वरूपने भेटतां रोके छे एटले ते मान्यता ज अंतराय छे, ते ज हिंसा छे.
(वधु माटे पान २०६)