Atmadharma magazine - Ank 035
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: २०६ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७२ :
श्रद्धाना जोरने लीधे तेने अंशे शुद्धता वधती ज जाय छे, तेना उपचारथी शुभरागने पण व्यवहारधर्म
तरीके कहेवामां आवे छे, एटले परमार्थे ते धर्म नथी एम लक्षमां राखीने समजवुं. परंतु जेने
रागरहितस्वभावनुं लक्ष ज नथी अने एकला रागमां ज धर्म मानी बेठो छे एवा जीवना शुभरागने तो
उपचारथी पण धर्म कहेवातो नथी. निश्चयनुं ज्यां भान होय त्यां रागादिमां उपचाररूप व्यवहार होय, परंतु
निश्चय वगरनो व्यवहार होतो नथी.
आ रीते निश्चयधर्म अने व्यवहारधर्मनुं स्वरूप समजाव्युं, परंतु बंने प्रकारना धर्मनुं मूळियुं तो
सम्यग्दर्शन ज छे, सम्यग्दर्शन पछी ज ते बंने प्रकारना धर्म होय छे, परंतु सम्यग्दर्शन वगर एकेय प्रकारनो
धर्म होतो नथी.
(अनुसंधान पान १९३ थी चालु)
जीवो ज पोताना ज्ञानवडे नहि समजे त्यां तुं शुं करीश? माटे परजीवोनी खातर पोताने भवनी
भावना करवी ते महा मिथ्यात्वदशा अने संसारनी तीव्र रुचि छे, पण तेमां परोपकार जराय नथी. हजी जे
पोते ज सत्य समज्यो नथी ते अन्यने सत समजवामां निमित्त पण शी रीते थशे?
पर जीवो अनंत छे तेमनुं गमे ते थाव, तेओ समजो के न समजो पण हुं मारा भावमां समजीने अने
पर जीवो प्रत्येनो विकल्प पण टाळीने अल्पकाळमां मुक्ति पामीश, परने कारणे मारे भव होई ज न शके एम
ज्ञानी तो पोताना भवरहितपणानी ज निःशंक भावना करे छे.
“अमने तो सम्यग्दर्शन थयुं छे, अने सम्यग्द्रष्टि मोक्ष पामे ज एम भगवाने कह्युं छे, तेथी अमारो तो
मोक्ष थई जशे, पण कोईक जीवना कारणे जो थोडो वखत राग करवो पडे के भव करवो पडे तो भले थाय, थवा
द्योने” . –एम माने ते मिथ्याद्रष्टि अनंत संसारी छे. सम्यग्दर्शन थाय तेने भवनी ईच्छा के रागनी भावना
होय ज नहि.
तेवी ज रीते कोई एम भावना करे के–अमुक जीव मारो मित्र छे अने मने तेना उपर बहु प्रीति छे माटे
तेने समजाववा खातर हमणां विकल्प तोडवो नथी, पण राखवो छे, एकाद भव भले थाय पण तेने समजाव्या
पछी विकल्प तोडीने केवळज्ञान लईश! जो अत्यारे हुं विकल्प तोडीने केवळज्ञान लउं तो पछी मारा विकल्प
वगर तेने कोण समजावशे? –आम भावना करनार तद्न पराधीनद्रष्टिवाळो, स्वभावना पुरुषार्थनी ना
पाडनारो छे. अरे भाई! जेणे एक पण पर जीवने खातर राग करीने एक भवमां अटकवानुं मान्युं तेना
अभिप्रायमां अनंत जीवो खातर अनंत भव करवानो भाव पड्यो ज छे. ज्ञानीने शुभराग तो आवे परंतु ते
राग तेओ पर जीवनी खातर राखवा मागता नथी, तेमज तेने एक क्षण पण राखवानो अभिप्राय नथी. जो
आ ज क्षणे सर्व राग तोडीने केवळज्ञान थाय तो मारे कोई राग राखवो नथी.
वळी हे भाई! ‘परने समजाववा खातर हमणां विकल्प तोडवो नथी पण राखवो छे’ –एमां तें शुं
कह्युं? अरे... तें तारी परम शुद्ध केवळज्ञानदशानी ना पाडी. जेणे केवळज्ञाननी एक समयने माटे पण ना पाडी
तेणे त्रिकाळ शुद्धस्वभावनो ज अनादर कर्यो अने रागनो ज आदर कर्यो, ते अनंत संसारी छे. भाई रे! जो
आत्मभान होय अने जो आ ज क्षणे ताराथी केवळज्ञान प्रगट थाय तो प्रगट कर. सामा जीवनी जो पात्रता
हशे तो, तारा विकल्प वगर पण दिव्यध्वनिना धोध छूटशे अने समोसरण रचाशे. तेथी, परने कारणे विकार
करवा जेवो छे अथवा तो कोई पण विकल्प राखवा जेवो छे एवो अभिप्राय छोडी देवो जोईए, अने
भेदविज्ञाननी ज अछिन्न धाराए भावना करवी जोईए, ते ज मोक्षनुं कारण छे.
(अनुसंधान पान २०७ थी चालु)
रागने घटाडवो ते मंदकषाय छे, ते मंदकषाय पण आत्मानुं स्वरूप नथी पण हिंसाभाव छे. मंदकषाय
आत्मानुं सम्यग्दर्शन प्रगटवानुं साधन नथी पण प्रज्ञा ज (भेदज्ञान ज) एक मात्र साधन छे. जे जीवने
भेदज्ञानवडे स्व–परनी भिन्नतानुं भान थयुं ते जीवने सर्व परद्रव्योमां सुख बुद्धि उडी गई एटले तेने कषायनी
मंदता तो होय ज. जेणे परमां सुखबुद्धि टाळी तेणे पर प्रत्येना रागमां पण सुखबुद्धि छोडी. पर जीवने बचाववानी
शुभ लागणी ते पण हिंसा छे. धिक्कार आ रागने! आ शुभराग वडे पण मारी पर्याय हणाय छे. मारी अवस्थामां
पुरुषार्थ हीणो छे; पण स्वभावथी हुं परिपूर्ण छुं–आवी ओळखाण वगर साची अहिंसा होई शके नहि.