: भाद्रपद : २४७२ : आत्मधर्म : २०५ :
३७. परमार्थ धर्म एटले के निश्चयधर्म–साचो धर्म तो एक ज प्रकारनो छे; पछी जीवदया कहो के
वस्तुस्वभाव कहो. तेमां एक शुद्धचेतना परिणाम ते ज धर्म छे. ‘शुद्धचेतनाने धर्म कहेवाय अने कोई वार
शुभने पण धर्म कहेवाय’ एवुं निश्चय धर्मनुं स्वरूप नथी. निश्चयधर्म तो एक ज प्रकारे छे.
३८. ‘हुं आत्मा कोण छुं’ तेना भान वगर शुद्धचेतना क्यांथी लावशे? बहारमां जीवो मरे के जीवे
तेमनी संख्या उपरथी हिंसा के दयानुं खरूं माप नथी. सम्यग्दर्शन थतां अहिंसानी शरूआत थाय छे, छतां
सम्यग्द्रष्टिने पण अस्थिरताना कारणे जेटली वृत्ति ऊठे तेटली चारित्रनी हिंसा छे. परंतु जे आत्मभान वर्ते छे
तेटली जीवदया छे. आ रीते साधकने अंशे अहिंसा अने अंशे हिंसा बंने साथे होय छे. अज्ञानीने एकांत
जीवहिंसा ज छे; वीतरागी ज्ञानीने संपूर्ण अहिंसा छे. वस्तुस्वभावरूप जैनशासनमां त्रणे काळे धर्मनुं स्वरूप
आवुं ज छे.
३९. पोताना भावमां अनंत पर द्रव्योनुं स्वामीत्व–अभिमान न थवा देवुं अने पोताना ज्ञानमात्र
स्वरूपने पुण्य–पापथी पण भिन्नपणे श्रद्धामां टकावी राखवुं–एवी खरी जीवदया छे तेनुं जगतने माहात्म्य
नथी, अने शुभनुं माहात्म्य आवे छे. जेणे पुण्यना विकल्पथी पोताने लाभ मान्यो तेणे पुण्यने पोतानुं स्वरूप
ज मान्युं, केमके जेने पोतानुं स्वरूप माने तेनाथी ज पोताने लाभ माने; अने जे जीवे पुण्यने पोतानुं स्वरूप
मान्युं ते जीवे जगतना बधा आत्माओने पण पुण्यस्वरूप मान्या, ए रीते जगतना सर्वे आत्माना स्वभावने
विकारी मान्यो, तेथी तेणे पोतानी मान्यतामां विश्वना सर्व जीवोनी हिंसा करी, आ महा जीवहिंसानुं पाप
जगतने जणातुं नथी!
४०. हिंसादिना अशुभ भाव करवानी वात तो होय ज नहि, अशुभभावमां तो तीव्र आकुळता छे, पण
शुभभाव थाय तेमांय आकुळता ज छे. ते बंने आकुळतामां हिंसा छे; तेनाथी रहित निराकुळता ज
ज्ञानचेतनानो जेटलो अनुभव तेटली जीवरक्षा छे. पोताना शुद्धजीवपरिणामनी रक्षा करवी, जीवपरिणामने
हणवा न देवा ते ज शुद्धचेतनापरिणामरूप धर्म छे. शुद्धचेतना परिणाम वगर दया के दर्शन–ज्ञान–चारित्र के
क्षमा वगेरे कोई धर्म साचो होतो ज नथी.
४१. ‘पर जीवने बचाववानो भाव करवो ते आपणी फरज छे’ ए मान्यता खोटी छे. पर जीवने
बचाववानो भाव ते तो विकार छे, शुं विकार करवो ते आत्मानी फरज छे? ज्ञानी तो जाणे छे के मात्र ज्ञाता
पणे स्वभावमां टकी रहेवुं ते मारी फरज छे, जेटलो हुं मारा ज्ञातास्वभावपणे टकी रहुं तेटलो धर्म छे, अने
ज्ञातापणा सिवाय अन्य जे कांई वृत्तिनुं उत्थान थाय ते मारी फरज नथी. आ रीते ज्ञानी जीव ज्ञाताद्रष्टापणे
पोताना चेतना परिणामने टकावी राखे छे ते ज धर्म छे.
वस्तुनो स्वभाव ते धर्म, उत्तम क्षमादि दस प्रकार धर्म, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म अने जीवरक्षा
धर्म–ए चार प्रकारनी प्ररुपणामां शुद्धचेतना परिणाममय एक ज प्रकारनो धर्म छे एम बताव्युं. निश्चय धर्म
एक प्रकारनो छे.
[वशख सद १०]
४२. व्यवहारनय पर्यायाश्रित छे तेथी ते भेदरूप छे. जीवनी पर्यायना परिणाम अनेक प्रकारना होवाथी
व्यवहार धर्म पण अनेक प्रकारनो छे. प्रयोजनवश एक देशने सर्व देशपणे कहेवामां आवे ते व्यवहार छे, तेम ज
बीजाना निमित्तथी अन्य वस्तुमां अन्य वस्तुनुं आरोपण करवुं ते व्यवहार छे.
निश्चयधर्मना भानपूर्वक ज्यारे स्वभावमां स्थिर न थई शके त्यारे शुभरागनुं अवलंबन होय छे;
निश्चयस्वभावना भानपूर्वक अशुभरागथी बचे छे तेथी तेने व्यवहारे धर्म कह्यो छे. आ व्यवहार एकदेशने
सर्वदेश कहेवारूप छे. धर्म तो संपूर्ण रागरहित ज छे, छतां शुभरागने पण उपचारथी धर्म कह्यो, त्यां
अशुभरागथी बचवा पूरतुं प्रयोजन सधाय छे तेथी रागरहितस्वभावना भान पूर्वक रागथी बच्यो ते
अपेक्षाए ते शुभरागने धर्म कहेवो तेनुं नाम व्यवहार छे. धर्म तो वीतरागभावरूप छे अने शुभराग ते धर्म
नथी, छतां पण निश्चयस्वभावना लक्षपूर्वक होवाने लीधे (–सम्यग्दर्शन–ज्ञानना निमित्ते) रागमां धर्मपणानो
आरोप करवो ते व्यवहार छे. आ व्यवहार अन्य वस्तुना निमित्ते एक पदार्थमां बीजा पदार्थनो आरोप
करवारूप छे.
श्रद्धामां जे जीवने शुभरागनो आदर नथी अने स्थिरतामां हजी कचाश छे एवो जीव आत्मानुं भान
टकावी राखीने शुभरागवडे अशुभरागथी बचे छे अने