Atmadharma magazine - Ank 035
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: २०४ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७२ :
आ रीते वस्तु स्वभावरूप धर्म तेम ज उत्तम क्षमादिरूप धर्म ते बंनेमां शुद्धचेतनाना परिणामरूप एक
ज प्रकार सिद्ध थयो.
३३. ३. दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म:– सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान अने सम्यक् चारित्र ए त्रणेमां एक
शुद्धज्ञानचेतनाना ज परिणाम छे; तेथी दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां पण शुद्धचेतनारूप धर्म ज साबित थाय छे.
शुद्धज्ञानचेतनामां पुण्य–पाप नथी, शरीर वगेरेनी क्रिया नथी, एकलो शुद्धस्वभाव भाव छे, ते ज धर्म छे. आ
रीते दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म कहेतां पण शुद्धचेतनापणुं साबित थयुं.
३४. ४. जीव दयारूप धर्म:– ‘जीव दया’ ना नामे लोको शुभरागमां धर्म मानी रह्या छे, परंतु जीवदयानुं
यथार्थ स्वरूप समजता नथी. क्रोधादि कषाय वशथी पोतानी तेमज परजीवनी हिंसानो भाव न करवो ते जीव
दया छे. सौथी मोटो क्रोध तो मिथ्यात्व छे, अने ते ज खरी जीवहिंसा छे. मिथ्यात्व छोडया वगर कदी पण
जीवहिंसा अटकी शके नहि. स्व जीवनी हिंसा न करवी ते ज मुख्य जीव दया छे, अने ज्यारे पोते क्रोधादि वडे
स्वजीवनी हिंसा न करी त्यारे क्रोधना अभावने लीधे परजीवने मारवानो भाव पण न आव्यो, तेथी परजीवनी
दया पण आवी गई. परंतु स्वजीवनी दया क्यारे थई शके? जे जीव पुण्यथी धर्म माने ते जीव विकारभाववडे
स्वभावनी हिंसा करे छे; पुण्य–पाप रहित मारुं शुद्ध स्वरूप छे एवी ओळखाण कर्या पछी दयानी शुभलागणी
पण छोडीने स्वरूपमां स्थिर रही गयो अने शुद्धज्ञानचेतना ना अनुभवमां लीन थयो ते ज जीवदयाधर्म छे.
एटले आमां पण चेतनानां शुद्ध परिणाम ते ज धर्म आव्यो. परजीवने तो खरेखर पोते मारी के जीवाडी शकतो
ज नथी, मात्र भाव करे छे. कोई जीवने दुःख न देवुं तेमां पोते पण भेगो ज आव्यो; हवे पोताने पण दुःखी न
करवो ते खरी दया छे. अशुभ परिणाम वखते तो पोते तीव्र दुःखी थाय छे अने दया वगेरेना शुभ परिणाम
वखते पण जीवने आकुळतानुं ज वेदन होवाथी ते दुःखी छे, तेथी अशुभ अने शुभ बंने भावोथी जीवने
बचाववो अर्थात् शुभाशुभरहित एकली ज्ञान स्वभावरूप दशा करवी तेटली ज जीवदया छे. जे जीव
शुद्धज्ञानचेतना वडे स्वरूपमां एकाग्र थयो ते जीवने अशुभभाव होय ज नहि एटले पर जीवनी दया त्यां स्वयं
ज पळाय छे.
जो पर जीवनी दया पाळवाना शुभरागमां धर्म होय तो सिद्धदशामां पण पर जीवनी दयानो राग होवो
जोईए! परंतु शुभ राग ते धर्म नथी, पण अधर्म छे, हिंसा छे.
३५. प्रथम सम्यग्दर्शनवडे स्वभावने ओळखतां श्रद्धा अपेक्षाए अहिंसकपणुं प्रगटे छे; केमके सम्यग्द्रष्टि
जीव पुण्य–पापना भाव थाय तेने पोताना स्वभावना मानतो नथी, ए रीते मान्यतामां पुण्य–पापथी पोताना
स्वभावने बचावी राखे छे तेथी तेने साची जीवदया छे. अज्ञानी जीव क्षणिक पुण्य–पाप जेटलो ज पोताने
मानीने त्रिकाळ विकाररहित स्वभावनो नाश करे छे, ते ज हिंसा छे.
वळी ‘जीवदया’ एम कहेवामां आवे छे, कांई ‘शरीर दया’ कहेवामां आवती नथी; केमके शरीर ते जीव
नथी. लोको शरीरनी क्रिया उपरथी माप करे छे ते खोटुं छे. शरीरथी भिन्न सदा चेतन स्वरूप जीव छे तेने श्रद्धा–
ज्ञान–स्थिरतामां टकावी राखवो अने विकारमां जवा न देवो ते ज जीवरक्षा छे.
‘पर जीवनी रक्षा करुं’ एवी दयानी लागणी ते पण परमार्थे जीवहिंसा ज छे एम प्रथम श्रद्धामां मानवुं
जोईए, अने तेवी मान्यता थया पछी पण अस्थिरताना कारणे शुभविकल्प ऊठे, परंतु ते धर्म नथी.
३६. मिथ्याद्रष्टि जीव जीवरक्षाना शुभभाव करतो होय त्यारे परजीवने हुं बचावी शकुं तथा मने आ
शुभभावथी धर्म थशे एम माने छे; सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माजीव लडाई लडतो होय अने तेने अशुभ परिणाम होय
पण अंतरमां भान होय के आ लडाईनी–देहनी क्रिया मारी नथी, अशुभभाव मारा पुरुषार्थना दोषथी थाय छे
तेटली हिंसा छे पण ते खरेखर मारुं साचुं स्वरूप नथी. तो ते वखते आ बे जीवोमांथी मिथ्याद्रष्टि जीवने
अंनती हिंसा वर्ती रही छे, अने सम्यग्द्रष्टि जीवने अल्प हिंसा छे, अरे! श्रद्धा अपेक्षाए तो ते लडाई वखते
पण अहिंसक छे, केमके तेने अंशे शुद्धचेतना परिणाम वर्ते छे, जेटले अंशे शुद्धचेतना परिणाम वर्तता होय तेटले
अंशे–लडाई वखते पण–जीवदया वर्ती रही छे. अने मिथ्याद्रष्टि जीवने जरापण शुद्धचेतना परिणाम नथी तेथी
तेने जीवरक्षाना भाव वखते पण जीवहिंसा ज छे. आतो अंतरंग शुद्धचेतना परिणाम उपरथी माप छे;
शरीरनी क्रिया तो दूर गई परंतु पुण्य–पापना भाव उपरथी पण जीवदया रूपी धर्मनुं खरुं माप नथी.