रीते दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म कहेतां पण शुद्धचेतनापणुं साबित थयुं.
दया छे. सौथी मोटो क्रोध तो मिथ्यात्व छे, अने ते ज खरी जीवहिंसा छे. मिथ्यात्व छोडया वगर कदी पण
जीवहिंसा अटकी शके नहि. स्व जीवनी हिंसा न करवी ते ज मुख्य जीव दया छे, अने ज्यारे पोते क्रोधादि वडे
स्वजीवनी हिंसा न करी त्यारे क्रोधना अभावने लीधे परजीवने मारवानो भाव पण न आव्यो, तेथी परजीवनी
दया पण आवी गई. परंतु स्वजीवनी दया क्यारे थई शके? जे जीव पुण्यथी धर्म माने ते जीव विकारभाववडे
स्वभावनी हिंसा करे छे; पुण्य–पाप रहित मारुं शुद्ध स्वरूप छे एवी ओळखाण कर्या पछी दयानी शुभलागणी
एटले आमां पण चेतनानां शुद्ध परिणाम ते ज धर्म आव्यो. परजीवने तो खरेखर पोते मारी के जीवाडी शकतो
ज नथी, मात्र भाव करे छे. कोई जीवने दुःख न देवुं तेमां पोते पण भेगो ज आव्यो; हवे पोताने पण दुःखी न
करवो ते खरी दया छे. अशुभ परिणाम वखते तो पोते तीव्र दुःखी थाय छे अने दया वगेरेना शुभ परिणाम
वखते पण जीवने आकुळतानुं ज वेदन होवाथी ते दुःखी छे, तेथी अशुभ अने शुभ बंने भावोथी जीवने
बचाववो अर्थात् शुभाशुभरहित एकली ज्ञान स्वभावरूप दशा करवी तेटली ज जीवदया छे. जे जीव
शुद्धज्ञानचेतना वडे स्वरूपमां एकाग्र थयो ते जीवने अशुभभाव होय ज नहि एटले पर जीवनी दया त्यां स्वयं
ज पळाय छे.
स्वभावने बचावी राखे छे तेथी तेने साची जीवदया छे. अज्ञानी जीव क्षणिक पुण्य–पाप जेटलो ज पोताने
मानीने त्रिकाळ विकाररहित स्वभावनो नाश करे छे, ते ज हिंसा छे.
ज्ञान–स्थिरतामां टकावी राखवो अने विकारमां जवा न देवो ते ज जीवरक्षा छे.
पण अंतरमां भान होय के आ लडाईनी–देहनी क्रिया मारी नथी, अशुभभाव मारा पुरुषार्थना दोषथी थाय छे
तेटली हिंसा छे पण ते खरेखर मारुं साचुं स्वरूप नथी. तो ते वखते आ बे जीवोमांथी मिथ्याद्रष्टि जीवने
अंनती हिंसा वर्ती रही छे, अने सम्यग्द्रष्टि जीवने अल्प हिंसा छे, अरे! श्रद्धा अपेक्षाए तो ते लडाई वखते
पण अहिंसक छे, केमके तेने अंशे शुद्धचेतना परिणाम वर्ते छे, जेटले अंशे शुद्धचेतना परिणाम वर्तता होय तेटले
अंशे–लडाई वखते पण–जीवदया वर्ती रही छे. अने मिथ्याद्रष्टि जीवने जरापण शुद्धचेतना परिणाम नथी तेथी
शरीरनी क्रिया तो दूर गई परंतु पुण्य–पापना भाव उपरथी पण जीवदया रूपी धर्मनुं खरुं माप नथी.