Atmadharma magazine - Ank 035
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४७२ : आत्मधर्म : २०३ :
अहीं शुद्धचेतनपरिणामने ज धर्म कह्यो छे, जेटली परजीवनी दया, दान, पूजा, व्रत, भक्ति वगेरेनी शुभ
के हिंसादिनी अशुभ लागणी ऊठे ते बधो अधर्मभाव छे; देहादिनी क्रिया तो आत्मा करी ज शकतो नथी, परंतु
शुभ परिणाम करे ते पण धर्म नथी. धर्म तो शुद्ध चेतनामय छे एटले पुण्य–पापना भाव थाय ते मारुं कर्तव्य
नथी परंतु ते विकारभावोनो पण हुं ज्ञाता ज छुं, ज्ञाता–द्रष्टापणुं ए ज मारुं स्वरूप छे, आवा भानपूर्वक ज्ञान–
दर्शनमय चेतनानी जे शुद्ध पर्याय छे ते ज धर्म छे. ‘धर्म’ ते द्रव्य के गुण नथी परंतु शुद्ध पर्याय छे. धर्मना चार
प्रकारे कथनमां शुद्धपर्यायनो खरेखर एक ज प्रकार छे. जेटले अंशे चेतना निर्विकारपणे परिणमे तेटले अंशे धर्म
छे अने जेटले अंशे पुण्य–पापना विकारपणे परिणमे तेटलो अधर्म छे. शरीरनी क्रियामां धर्म माने ते तो तद्न
बहिरद्रष्टि मिथ्याद्रष्टि छे, अहीं तो पुण्यमां धर्म माने तो पण ते मिथ्याद्रष्टि छे. पुण्य अने देहनी क्रिया ते मारुं
स्वरूप नथी, ज्ञाताद्रष्टापणुं ए ज मारुं खरूं स्वरूप छे–एम जाणनार ज्ञानीने पण नीचली दशामां पुण्य–पापनां
परिणाम थाय खरा, परंतु तेओ एम समजे छे के पुण्य–पापना विकार रहित शुद्धचेतना परिणतिमां जेटली
स्थिरता करुं तेटलो धर्म छे, अने चेतनानुं जेटलुं बहिरमुख वलण जाय ते बधोय अधर्मभाव छे. निर्मळ पर्याय
प्रगटी ते ज धर्म छे, धर्म खरेखर तो पर्याय छे, परंतु शुद्धपर्याय ते द्रव्य साथे अभेदपणुं धरावती होवाथी
अभेदपणे वस्तुना स्वभावने ज धर्म कह्यो छे. प्रथम पुण्य–पापरहित स्वभावनी प्रतीत थतां सम्यग्दर्शनधर्म
प्रगटे छे त्यारे चेतनाना परिणाम अंशे शुद्ध अने अंशे अशुद्ध होय छे. ज्ञानी शुद्धपरिणाममां ज धर्म समजे छे
तेथी तेओ अशुद्धपरिणामने स्वभावमां स्वीकारता नथी. एटले पुण्य–पापरहित स्वभावनी स्थिरता वडे क्रमे
क्रमे चारित्रनी पूर्णता करे छे, ज्यारे पूर्णशुद्धचेतना परिणाम प्रगटे छे त्यारे केवळज्ञान प्रगटे छे अने पुण्य–
पापनो अभाव थाय छे.
‘शुद्धचेतनारूप धर्म’ कहेतां ज एम सिद्ध थयुं के ज्ञान–दर्शन सिवाय आत्मा बीजुं कांई करी ज शकतो
नथी. ज्ञान–दर्शन सिवाय बीजुं जे कांई कर्तृत्व माने ते अधर्मभाव छे.
एकला ज्ञान–दर्शनमय स्वभावने मान्यो तेमां परनुं करवानी वात ज क्यां आवी? अरे, ज्ञानमां शुभ
विकल्प पण क्यां आव्यो? चेतनानो स्वभाव ज विकल्प रहित जाणवा–देखवानो ज छे, अने ते विकार रहित
शुद्धचेतना ए ज धर्म छे.
३२. २. उत्तम क्षमादि दस प्रकार धर्म:– आत्मा क्रोधादि कषायरूपे न परिणमे अने पोताना स्वभावमां
स्थिर रहे ते ज उत्तम क्षमादिरूप धर्म छे; आ रीते उत्तम क्षमादिरूप धर्म कहेतां पण शुद्धचेतनाना परिणामरूप
धर्म ज सिद्ध थाय छे, केमके तेमां चेतनानां परिणामने पुण्य–पापथी छोडावीने ज्ञानस्वभावमां ज स्थिर करवानुं
आव्युं. हुं ज्ञानस्वरूप जाणनार छुं, मारा ज्ञानमां कोई पर द्रव्य ईष्ट–अनिष्ट नथी, मारा ज्ञानने माटे कोई शत्रु
के मित्र नथी, दुर्जन के सज्जन नथी–आवा भानपूर्वक स्वरूपनी स्थिरता होय त्यां ज उत्तम क्षमा होई शके.
‘आपणे सहन करतां शीखवुं जोईए’ एम परद्रव्योने सहन करवानुं माने अने स्वभावना भानवगर क्षमा
राखे ते उत्तम क्षमा नथी. मारो स्वभाव जाणवानो छे, मारुं ज्ञान सर्वपदार्थोने समपणे जाणनार छे, जाणवामां
‘आ सारूं अने आ खराब’ एवी वृत्ति ते ज्ञाननुं स्वरूप नथी. आवा भानपूर्वक मान, अपमाननी वृत्ति
तोडीने स्वरूपमां स्थिर थवुं ते ज शुद्धचेतनारूप धर्म छे. अहीं मुख्यपणे मुनिना लक्षे वात करी छे, छतां
सम्यग्द्रष्टिने पण अंशे शुद्धचेतना होय छे, प्रतीतपणे तेने सर्व द्रव्यो प्रत्ये क्षमा वर्ते छे. परलक्षे क्रोध के क्षमानी
अल्प लागणी थई जाय तेने ज्ञानी पोताना स्वभावमां स्वीकारता नथी तेथी तेमने निरंतर अंशे उत्तम
क्षमारूप धर्म वर्ते छे. आत्मस्वभावना भानवगर द्रव्यलिंगी जैन निर्ग्रंथ मुनि थाय अने तेना शरीरने क्षार
छांटीने जीवतो बाळी मूके तोपण क्रोधनी लागणी न करे छतां तेने उत्तम क्षमा नथी, केमके क्षमानी शुभवृत्तिने ते
पोतानुं स्वरूप माने छे परंतु शुद्ध चेतना परिणामनी तेने खबर नथी. शुभ परिणामथी पण शुद्धचेतना जुदी
छे एवा भान वगर धर्म होई शके नहि. ज्ञान स्वरूपमां कोई पण रागनो अंश नथी, अशुभ के शुभ बंने
प्रकारना राग रहित शुद्धचेतना ते ज धर्म छे. शुभभाव ते विकार छे तेने जे धर्ममां मददगार माने तेने
मिथ्यात्वनुं महापाप छे, पुण्यभावमां पण लोभ कषायनी मुख्यता छे, ते पुण्यभाव अशुद्ध चेतना छे, शुद्ध
चेतनारूप धर्म तो एक ज प्रकारनो छे, तेमां शुभ अशुभ विकल्पने पण स्थान नथी.