Atmadharma magazine - Ank 035
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४७२ : आत्मधर्म : २०१ :
जे समजेलो ज छे, तेमां ते नवीन शुं कर्युं? तमने आत्मा न समजाय एटले के तमे बधा मूढ अज्ञानी रहेवा
लायक छो. आवा उपदेशकोने जे गुरु माने अने तेने वंदनादि करे तेओ मिथ्यात्वने ज वंदन करे छे अने
मिथ्यात्व पापनुं ज पोषण करे छे.
२३. कोई बचाव करे के पूर्वे जेने अज्ञानपणे गुरु मान्या होय ते सामा मळे तो वंदन करवुं जोईए ने!
तेनुं समाधान–भाई रे! पूर्वे अज्ञानदशामां पाडो पण तारो बाप अनंतवार थई गयो, तो पाडाने केम वंदन
करतो नथी? केमके पर्याय फरी गई छे तेथी त्यां विवेक राखे छे. तो अहीं पण हवे अज्ञानदशा फरीने ज्ञान दशा
थई गई ते हवे कदापि अज्ञानी कुगुरु वगेरेने नमस्कार करे नहि. जो पहेलांंनी जेम ज चलाव्ये राखे तो
अज्ञानदशामां अने ज्ञानदशामां फरक शुं पड्यो? जेने गुण अवगुणनो निर्णय थाय तेने साचा खोटानो विवेक
थया वगर रहे ज नहीं.
२४. प्रभु! अनंतकाळे आत्मस्वरूप समजवानां टाणां आव्या अने जो सम्यग्दर्शन वडे साचुं नहि समज
तो कोई तने शरणभूत नथी; पुण्य पापरहित चैतन्य स्वभावनी प्रतीति वगरनां तारा त्याग वगेरे बधुं
मफतनुं छे, तेनाथी संसार दुःखनो अंत नहि आवे.
२५. जेवो आत्मस्वभाव छे तेवी ज तेनी प्रतीत करी ते सम्यग्दर्शन छे, ते ज अहिंसा, सत्य वगेरे
धर्मनुं मूळ छे. वस्तुस्वभावना भानद्वारा सम्यग्दर्शन कर्या वगर कोई पण जीवने कदापि अहिंसा के सत्य होई
शके ज नहि, परंतु अज्ञानपणे मिथ्यात्वरूप महा हिंसा अने असत्यनुं ज निरंतर सेवन होय.
आत्मसमजणवगरनुं लौकिक सत्य ते पण हिंसा ज छे. परजीवोनुं कांई करी शकुं एम मानवुं ते मिथ्यात्व छे, ते
सर्व पापनुं मूळ छे.
२६. जे जीवने सम्यग्दर्शन नथी तेनी पासे बीजो कोई धर्म नथी, अने तेनी पासेथी धर्मनी प्राप्ति नथी–
अर्थात् ते धर्मनुं निमित्त नथी. जेनामां धर्म नथी तेने जे धर्मनुं निमित्त बनाववा मागे छे ते जीव तेना करतां
पण हलको–तीव्र मिथ्याद्रष्टि बनवा मागे छे. स्वतंत्र आत्मानी श्रद्धा वगर द्रव्यलिंगी मुनि थाय तोपण शुं?
स्वभावनी श्रद्धा वगरना जीव पासेथी तुं शुं लेवा मागे छे? जे अधर्मी छे तेनी पासेथी तो अधर्मनो लाभ
थाय; माटे धर्मरहित जीवने वंदन करवाथी कांई लाभ नथी.
२७. अहीं ए ध्यान राखवुं के सामो जीव मिथ्याद्रष्टि छे माटे तेने वंदन करनारने पाप लागे छे–एम
नथी, केमके एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करी ज शकतुं नथी–परंतु धर्मरहितने वंदन करनार जीवोने पोतानो
उपादानभाव ज खोटो छे, तेने उपादानमां ज अधर्म गोठयो छे तेथी निमित्तमां पण ते अधर्मीने वंदन करे छे.
२८. त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव धर्मपिता छे, तेमणे जे धर्म वर्णव्यो तेनाथी विरुद्ध कहेनारा बधा
वीतरागना वेरी छे, एवाने धर्मगुरु मानवा ते ‘बापना दुश्मनने जमाडवा’ जेवुं छे. तीर्थंकर प्रभुए कहेला
तत्त्वने विपरीत पणे माने तेनो जे आदर विनय करे ते वीतरागना वेरीनो आदर करे छे अने ते पोते ज
वीतरागनो वेरी छे; खरी रीते तेवा आत्माओने पोताना वीतरागभावनो प्रेम नथी पण वीतरागताना वेरी
मिथ्यात्वनो प्रेम छे तेथी मिथ्याद्रष्टिने वंदनादि करे छे.
२९. साचुं समजवानी ताकात ढोरमां, देडकामां अने वांदरामां पण छे तो पछी मनुष्यो तो जरूर समजी
शके छे, माटे सत्य वात घडाका करती बहार आवी छे तेनो मेळवणी करीने निर्णय करवो.
३०. आत्माने अज्ञान तथा पुण्य–पापरूपी संसार दुःखथी उद्धारीने ज्ञान स्वभावनां सुखस्थानमां स्थापे
ते ज धर्म छे.
[वैशाख सुद – ८]
सर्वज्ञदेवनी परंपराथी जे जिनमत प्रवर्ते छे तेमां धर्मना स्वरूपनुं यथार्थ निरुपण छे; तेमां निश्चय अने
व्यवहार एम बे प्रकारे धर्मनुं कथन कर्युं छे. धर्मनी प्ररुपणा चार प्रकारे छे–१. वस्तु स्वभावरूप धर्म. २. उत्तम
क्षमादिक दस प्रकार धर्म. ३. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म. अने ४. जीवरक्षारूप धर्म. त्यां जो निश्चयथी
विचारीए तो आ चारेय प्रकारमां शुद्धचेतनारूप धर्म एक ज प्रकारनो छे, ते समजाववामां आवे छे–
३१. १. वस्तु स्वभाव ते धर्म–दर्शन–ज्ञान–परिणाममयी चेतना ते जीववस्तुनो परमार्थ स्वभाव छे,
ज्यारे ते चेतनाना परिणाम सर्व विकार रहित शुद्धचेतनारूप परिणमे त्यारे ते धर्म छे. आ रीते वस्तुनो
स्वभाव ते धर्म एम कहेतां शुद्धचेतनारूप धर्म सिद्ध थाय छे.