Atmadharma magazine - Ank 036
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: २१४ : आत्मधर्म आसो : २४७२
पहेलांं विकल्प सहित ज्ञानथी निर्णय कर्या पछी स्वभावमां ढळतां ते विकल्प छूटी जाय छे. प्रथम
स्वभाव तरफ ढळतां सूक्ष्म राग रह्यो छे, त्यां पर संबंधी विचारनो स्थूळ राग तो छूटयो छे पण स्वमां भेदना
विचारनो राग वर्ते छे. ते राग पोते स्वभावमां ढळवानुं कार्य करतो नथी परंतु ते राग वखते जे ज्ञान छे ते
ज्ञान पोते स्वभावमां ढळे छे. अभेद स्वभावनो अनुभव अने श्रद्धा करतां ते ज्ञान तो चैतन्यमां व्यापी जशे
अने विकल्पनो राग टळी जशे. आमां ज्ञान लंबाणुं छे.
पहेलांं भेदनो विचार पगथियारूपे आवे छे पण ज्यां अभेदना जोरे विकल्प तोडयो त्यां ज्ञान अभेद–
चैतन्यमां व्यापी गयुं. ते ज्ञान साथेनो विकल्प टळ्‌यो पण विकल्पनुं ज्ञान टळी गयुं नथी. केम के ज्ञान तो
आत्मानो स्वभाव छे. विकल्परूप व्यवहारनुं ज्ञान करवुं ते दोषनुं कारण नथी, पण जे विकल्प आवे छे ते
चारित्रनो दोष छे. अने जो ते विकल्पने अभेद स्वभावमां ढळवानुं साधन माने तो श्रद्धानो दोष छे. ज्ञान तो
पोतानो स्वभाव होवाथी तेनो स्वीकार बीजी पर्यायमां पण चालु रहे छे; अने राग ते स्वभावनुं साधन नथी,
तेथी स्वभावमां ढळतां ते छूटी जाय छे.
‘हुं चैतन्य छुं’ एवी भेदनी वृत्ति ऊठे ते हुं नहि, एम प्रज्ञा वडे नक्की तो कर्युं छे, पछी चैतन्य
स्वभावमां ढळतां भेदनी वृत्ति ऊठी छे तेने तोडीने अंदर ठरवानी आ वात छे.
आत्माने परथी भिन्न शुद्ध स्वभावपणे कई रीते जाणवो? तेना उत्तरमां कह्युं छे के प्रज्ञा वडे आत्माने
परथी भिन्नपणे जाणवो. प्रज्ञावडे ज आत्मा अने बंधने जुदा कराय छे. शिष्य पूछे छे के आत्माने प्रज्ञावडे
परथी जुदो तो जाण्यो परंतु आत्माने ग्रहण कई रीते करवो? आत्मामां लीन कई रीते थवुं? तेनुं समाधान
आ गाथामां चाले छे. ‘हुं आत्मामां लीन थाउं’ एवा विकल्प वडे आत्मामां लीनता थती नथी पण प्रज्ञा वडे
ज (स्वभाव तरफ ढळता ज्ञानथी ज) लीनता थाय छे. पहेलांं भेदना विकल्प आवे तेने साधन कहेवुं ते
व्यवहार छे, खरेखर ते विकल्प छोडीने स्वभावमां ढळे त्यारे तेने व्यवहार कहेवाय छे एटले के विकल्प तो
जाणवा माटे छे. मोक्ष पर्याय शाथी थाय? के शुद्ध चैतन्य स्वरूपनुं प्रज्ञा वडे ज्ञान अने तेमां ज प्रज्ञावडे लीनता
करवाथी मोक्ष थाय छे, परंतु देहादि जडनी क्रियाथी के व्रतादिना विकल्पथी मोक्ष थतो नथी.
तीर्थराज श्री सुवर्णपुरीमां धार्मिक महोत्सव
सुवर्णपुरी (सोनगढ) नुं नाम कया मुमुक्षुए नहि सांभळ्‌युं होय! तीर्थधाम सुवर्णपुरीमां उजवाता
धार्मिक महोत्सवने नजरे निहाळनारने एम लाग्या वगर रहेतुं नथी के–महोत्सवना प्रसंगे सुवर्णपुरी ए
साक्षात् धर्मक्षेत्र बनी जाय छे, अने धर्मने माटे अहीं पांचमो नहि पण चोथो काळ छे.
सुवर्णपुरीमां शुं नथी? बधुं ज छे. एक तरफ भव्य जिन मंदिर छे–जेमां मूळ नायक तरीके श्री सीमंधर
भगवाननी उपशमरस नीतरती प्रतिमा बिराजमान छे. जिन मंदिरनी पाछळ अद्भुत समवसरणनी रचना
छे, जेमां कुंदकुंदाचार्यदेव श्री सीमंधर भगवाननी दिव्यवाणी झीली रह्या छे ए पवित्र द्रश्य नजरे पडे छे. बीजी
तरफ जन्म–मरणनो भावरोग टाळवा माटे महामंगल मंदिर–श्री जैन स्वाध्याय मंदिर–छे, जेमां वीतरागदेवनी
साक्षात् वाणी समान श्री समयसारजी परमागमनी विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवामां आवी छे. विशेषपणे मुमुक्षु
आत्माओना महत्सद्भाग्य ए छे के, अहीं साक्षात् चैतन्य मूर्ति सद्गुरुदेव श्री कहानप्रभु बिराजी रह्यां छे
अने वीतरागी प्रभुनी छत्रछाया नीचे व्याख्यान पीठिका उपर बिराजीने सत्धर्मना एकधारा प्रवाही उपदेशवडे
वीतरागशासननुं रहस्य प्रगट करी रह्यां छे. ते रीते धर्मधूरंधर तीर्थंकरोना विरह वखते पण तेओश्री धर्मकाळ
वर्तावी रह्या छे. आ रीते धर्मक्षेत्र सुवर्णपुरीमां सत्देव–गुरु–शास्त्रनो महामंगळ सुमेळ वर्ती रह्यो छे. आ
उपरांत पू. सद्गुरुदेवश्रीना मंगल प्रवचनना रहस्यने समजीने मोक्षलक्ष्मी साथे लग्न करवा माटेना भव्य
मंडपरूप ‘भगवानश्री कुंदकुंद प्रवचनमंडप’ तैयार थई रह्यो छे; तेमज ‘श्री खुशाल जैन अतिथि गृह’ महान
साधर्मी वात्सल्यनुं दर्शन करावी रहेल छे; अने मुमुक्षुओनां मंडळ वसी रह्यां छे ते धर्मना उद्योतनी जाहेरात
करी रह्यां छे.