आसो : २४७२ आत्मधर्म : २१३ :
सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं तो, पहेलांं जे ज्ञाने विकल्प सहित निर्णय कर्यो हतो ते ज्ञाननो निर्णय तो टकी
रह्यो छे, मात्र विकल्पनो नाश थयो छे; जे ज्ञाननो निर्णय नाश पामतो नथी ते ज्ञानने हेय केम कहेवाय? अहीं
कई अपेक्षा चाले छे ते समजवी जोईए. एकला विकल्पवाळा ज्ञाननी अहीं वात नथी; एवुं ज्ञान तो अभवी
पण करे छे, परंतु जे जीव विकल्प सहित निर्णय करीने अभेद तरफ ढळे छे ते जीवने, पूर्वे निर्णय करनारुं ज्ञान
मोक्षमार्गनुं साधन थाय छे, अहीं स्वभाव तरफ ढळ्युं ते ज्ञान निश्चय अने स्वभाव तरफ ढळतां पहेलांं विकल्प
सहित स्वभावनो निर्णय करनारुं ज्ञान ते व्यवहार छे. जो स्वभावमां ढळीने निश्चय प्रगट करे तो पहेलांंना
ज्ञानने व्यवहार कहेवाय छे. स्वभाव सन्मुख थतां प्रथम तो विकल्पनुं ज्ञान होय छे. पण जो विकल्प तोडीने ते
ज्ञान अंतर स्वभाव सन्मुख थाय अने सम्यग्ज्ञान रूपे परिणमे तो ते ज्ञान नित्य टकी रह्युं कहेवाय. जे ज्ञाने
विकल्प सहित निर्णय कर्यो ते ज्ञान विकल्प तोडीने स्वमां ढळी ज जशे–एवी शैलीथी अहीं कथन छे. पण
विकल्प करतां करतां ज्ञान सम्यक्रूपे परिणमी जशे एम जे माने तेनी द्रष्टि विकल्पमां ज अटकी छे तेथी तेने
सम्यग्ज्ञान थाय नहि.
नव तत्त्वनी श्रद्धा, विकल्पसहित ज्ञान अने पंच महाव्रतनी वृत्तिए रीते व्यवहारसम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रनुं ज्ञान तो पहेलांं आवे, ते व्यवहार छे; तेमां जेटलो राग छे ते हेय छे पण जे ज्ञान छे ते हेय नथी–
एम क्यारे कहेवाय? जो ते ज्ञान टकी रहीने अभेदनी श्रद्धा करे तो ते हेय नथी. पण जो अभेदनी श्रद्धा न करे
तो ते ज्ञानमां सम्यग्ज्ञानरूप थवानी ताकात नथी, अने तेथी ते ज्ञान आत्माने लाभनुं कारण नथी.
जेम केवळी भगवानने पूर्वना बधा विकल्पोनुं ज्ञान वर्ते छे, विकल्पो छूटी जवां छतां तेनुं ज्ञान छूटी
जतुं नथी; तेम स्वरूप तरफ ढळवा जतां प्रथम जे विकल्पो होय छे ते विकल्पो सम्यग्ज्ञान थतां छूटी जाय छे पण
ज्ञाने करेला यथार्थ निर्णयनो स्वीकार तो चालु रहे छे. केम के जो ज्ञाननो निर्णय पण छुटी जाय तो पर्यायनो ज
नाश थाय. द्रव्य, गुण अने प्रगटेली ज्ञान पर्याय ते त्रणे थईने वस्तु छे.
निज शुद्धात्मानी श्रद्धा कर्या वगर कोई जीव अगीआर अंग भणे तोपण तेनुं ज्ञान टकयुं न कहेवाय
पण ते ज्ञान विनाशिक छे, स्वभावनी श्रद्धा वगरनुं अगीआर अंगनुं ज्ञान ते पण क्षणिक बोध छे, शास्त्रोनुं
विशेष जाणपणुं न होवा छतां जो स्वभावनी श्रद्धा करीने ज्ञान स्वमां वळे तो ते ज्ञान टकयुं कहेवाय. जे ज्ञाननुं
अभेदपणुं आत्मा साथे थाय ते ज्ञान अविनाशी छे. जो के ते ज्ञान–पर्याय तो एक समय पूरती ज छे परंतु ते
ज्ञाननुं परिणमन क्रमेक्रमे वधीने केवळज्ञानरूप थाय छे ए अपेक्षाए ते ज्ञानने अविनाशी कहेवाय छे. जे ज्ञान
रागमां टके ते विनाशी अने स्वभावमां टके ते अविनाशी छे.
गया काळनी विकारी पर्यायनो ख्याल वर्तमान ज्ञानमां थाय ते नुकशाननुं कारण नथी; केम के विकारनो
विकार तरीके ख्याल कर्यो ते तो ज्ञाननुं कार्य थयुं, ज्ञाननुं कार्य नुकशाननुं कारण नथी.
प्रज्ञावडे ज आत्मानुं ग्रहण करवानुं कह्युं छे अने बाकी बधा भावोने आत्माथी पर जाणवा–एम कह्युं
छे. ‘चेतक ते ज हुं’ –आमां विकल्प पण छे अने ज्ञान पण छे; आमां जे ज्ञान छे ते चेतक स्वभाव तरफ
ढळनारुं छे. चेतक स्वभावनी अभेदपणे श्रद्धा करतां ते श्रद्धाना जोरे ते ज्ञाननो निर्णय पर्यायमां चालु रहेशे
अने विकल्प छूटी जशे. निश्चयस्वभावनुं लक्ष करनारा जीवने निश्चय–व्यवहार कई रीते होय ते आमां आवी
जाय छे. यथार्थ स्वभावनुं स्वद्रव्याश्रित ज्ञान ते निश्चय छे अने स्वभावनुं लक्ष करवा जतां जे विकल्प ऊठ्यो
ते व्यवहार छे.
आत्मा तो ज्ञान छे, ते ज्ञान ज कर्या करे छे. आत्मा क्यारे ज्ञान नथी करतो? अज्ञान दशामां शुभाशुभ
भाव करती वखते पण ज्ञान तो करे छे; पण ते ज्ञानदशा क्यारे टके अथवा तो ते ज्ञान मोक्षनुं कारण क्यारे
थाय? जो रागनुं अवलंबन तोडीने अभेद स्वभावनी श्रद्धा करीने तेना अवलंबने ज्ञान करे तो ते ज्ञान स्वमां
भळीने अभेद थाय अने ते मोक्षनुं कारण थाय. पण जे ज्ञान पर लक्षमां रोकाय अने स्वमां न ढळे ते ज्ञान
मोक्षनुं कारण थाय नहि.
आ गाथामां प्रथम छ कारकना भेदथी वात करी छे अने पछी छ कारकना भेदनो नकार करीने वात करी
छे, ‘हुं चेतक छुं’ मारा वडे ज चेतुं छुं’ ईत्यादि छ कारक भेदना विचारथी अथवा तो ‘मारामां छ कारक भेद
नथी–हुं एक चेतक ज छुं’ एवा विचार ते बंने राग छे, हजी ज्ञानमां भेद पडे छे; जो अभेद स्वभावमां
निर्विकल्पपणे ठरी जाय तो तेवो भेदनो विचार न होय पण अभेदनो अनुभव ज होय. अने जो
चैतन्यस्वभावनो निर्णय कर्यो ज न होय तो तेने पण आवा स्वभाव तरफ ढळवाना विचार न आवे; जेणे
चैतन्यस्वभावने निर्णयमां तो लीधो छे पण हजी विकल्प तोडीने तेमां एकाग्र थयो नथी एवा जीवने
साधकदशामां आवा विकल्पोरूप व्यवहार आवे छे.