Atmadharma magazine - Ank 036
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: २१२ : आत्मधर्म आसो : २४७२
कयुं ज्ञान मोक्षनुं कारण थाय?
[समयसारजी – मोक्षअधिकारना व्याख्यानोमांथी]
शिष्य पूछे छे के–आ आत्माने प्रज्ञा वडे कई रीते ग्रहण करवो? तेनो उत्तर कहे छे:–
प्रज्ञाथी ग्रहवो–निश्चये जे चेतनारो ते ज हुं,
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी पर–जाणवुं. २९७.
अर्थ:– प्रज्ञावडे आत्माने एम ग्रहण करवो के–जे चेतनारो छे ते ज निश्चयथी हुं छुं, बाकीना जे भावो
छे ते माराथी पर छे एम जाणवुं.
जे चेतकस्वभाव छे ते ज हुं छुं, पुण्य–पापना भाव ते चेतकस्वभावथी जुदा छे, ते मारी पर्यायनुं स्वरूप
नथी. जे पुण्य–पापनी लागणीओ थाय ते बधी बंधनुं कार्य करे छे परंतु स्वभावनी एकतानुं कार्य करती नथी,
माटे ते बधी लागणीओथी जुदो चेतकस्वभावी ते ज हुं छुं. आम स्वभाव अने बंधभावना जुदापणानुं ज्ञान
पहेलेथी ज करवुं जोईए. केम के स्वभावने अने बंधभावने जुदा जाण्या वगर स्वभावनुं ग्रहण अने
बंधभावनो त्याग शी रीते करी शके? माटे प्रथम प्रज्ञावडे आत्मस्वभाव अने बंधभावने भिन्नपणे ओळखीने
पछी ते ज प्रज्ञावडे चेतकस्वभावी आत्मानुं ग्रहण करवुं.
शुद्धचैतन्यस्वभाव तरफ ढळ्‌या होवाथी ज्ञानी जाणे छे के खरेखर हुं ज्ञाता ज छुं अने पुण्य–पापनी बधी
लागणीओ माराथी अत्यंत भिन्न ज छे. आत्मानो अनुभव करती वखते ‘आ पुण्य–पाप हुं नथी’ एवो
विकल्प होतो नथी, परंतु जीव ज्यारे स्वभावना अनुभव तरफ ढळे छे त्यारे पुण्य–पापनी लागणीओनुं लक्ष
छूटी जाय छे. ए रीते ‘पुण्य–पाप माराथी अत्यंत भिन्न ज छे’ एम ज्ञानीओ अनुभवे छे.
पर पदार्थोना अने सात तत्त्वोना विचारथी छूटीने स्वभावमां ढळतां पहेलांं आत्मा संबंधी जे विकल्पो
आवे छे ते पण राग छे, तेना वडे आत्मानुं ग्रहण थतुं नथी.
पंचास्तिकायमां व्यवहाररत्नत्रय संबंधी अधिकारमां कह्युं छे के–शिष्य प्रथम ज्ञानमार्गमां होय त्यारे
विकल्प पुर्वक स्वने स्वपणे अने परने परपणे ज्ञानमां ले छे; त्यां जे विकल्प छे ते तो राग छे, ते राग तो
बंधनुं ज लक्षण छे; पण जे ज्ञानथी जाणपणुं करे छे ते ज्ञान तो आत्मानो स्वभाव छे, ते ज्ञान सम्यग्ज्ञाननुं
कारण छे. पण अभेदना लक्ष वगर जो एकला भेदवाळा ज्ञानने ज अभेदनुं कारण मानीने अभेदमां भेळववा
मागे तो ते निश्चय–व्यवहारनुं स्वरूप समज्यो नथी. अभेदना लक्ष्य पूर्वक जे ज्ञान कार्य करे छे ते राग मिश्रित
ज्ञानने व्यवहार कह्यो छे.
प्रथम रागमिश्रित ज्ञान वडे स्वभावने ख्यालमां लईने ज्ञानमां जीव आगळ वधे छे, त्यां ज्ञान साथेनो
राग छूटतो जाय छे अने ज्ञान स्वमां वळतुं जाय छे. रागमिश्रित ज्ञानवडे स्वभावने ख्यालमां लीधा पछी जे
जीव ज्ञानने लंबावे छे पण रागने लंबावतो नथी तेने विकल्प टळी जईने ज्ञाननो स्वीकार चालु रहे छे.
विकल्प टळी जतां कांई ज्ञान चाल्युं जतुं नथी. ज्ञान ते स्वभाव छे अने राग ते मारो स्वभाव नथी एम प्रथम
अभ्यासथी जाणे तो ज्ञानने लंबावीने स्वभाव तरफ वलण करी सम्यग्दर्शन प्रगट करे.
आचार्यदेव प्रथमथी ज विकल्प अने ज्ञाननुं जुदापणुं समजावे छे. सम्यग्दर्शन प्रगट थया पहेलांं ‘हुं
चैतन्य–स्वभावी छुं’ ईत्यादि विकल्प वर्ते छे; त्यारे जे विकल्प छे ते तो राग छे, ते छोडवा जेवो छे, परंतु ते
वखते जे ज्ञान थाय छे ते ज्ञान छोडवा जेवुं नथी, ते ज्ञान तो स्वमां भळे छे. परंतु ते ज्ञानने सम्यग्ज्ञाननुं
कारण क्यारे कहेवाय? जो अभेद आत्मस्वभावनो यथार्थ निर्णय करीने ते निर्णयना जोरे स्वभावमां ढळीने
रागनो विकल्प तोडी नांखे तो ते ज्ञानने सम्यग्ज्ञाननुं कारण कहेवाय छे. विकल्प सहित जाणे पण जो अभेद
स्वभावनो निर्णय करीने विकल्पथी अधिक न थाय तो तेवुं ज्ञान अनंतवार चाल्युं गयुं एटले के जे ज्ञान अभेद
स्वभावनो निर्णय न करे अने रागमां ज अटके ते ज्ञान नाशवान छे, अने जे ज्ञान रागथी खसीने अभेद
स्वभाव तरफ ढळे छे ते ज्ञान, आत्मा साथे अभेद थतुं होवाथी अविनाशी छे.
पंचास्तिकायमां कह्युं छे के, व्यवहार ज्ञान निश्चय मार्गमां लई जाय छे. प्रथम विकल्प सहित जे ज्ञान
जाणे छे तेने व्यवहारज्ञान कहेवाय छे अने विकल्पथी छूटीने सम्यग्दर्शनादि प्रगट करवा ते निश्चयमार्ग छे. जो
स्वभावना लक्षे ‘शुद्ध चैतन्य स्वरूप छुं’ एवो निर्णय करीने