आसो : २४७२ आत्मधर्म : २११ :
वर्ष त्रीजुं : सळंग अंक : आसो
अंक बार : ३६ : २४७२
– ःक्रियाः –
तेनुं स्थापन अने उत्थापन
[श्री समयसारजी गाथा २९७ ना व्याख्यान उपरथी]
प्रश्न:– अध्यात्मने जाणनारा ज्ञानीओ क्रियाने उथापे छे ए वात साची छे?
उत्तर:– ना; ज्ञानीओ ज क्रियानुं साचुं स्थापन करे छे. ज्ञानीओ ज शुद्ध जीवने, रागादि
विकारने अने शरीरादि जडने यथार्थ स्वरूपे जाणे छे तेथी तेओ ज साची समजण–ज्ञान, श्रद्धा
वगेरेने जीवनी शुद्ध क्रिया तरीके, अज्ञान, पुण्य–पापादिने जीवनी विकारी क्रिया तरीके अने
शरीरना हलन चलनादिने जडनी क्रियापणे बराबर स्थापे छे. आ त्रण प्रकारनी क्रियामां साची
समजण–वगेरेनी क्रिया ते धर्म क्रिया छे, अज्ञान–पुण्य–पापादिनी विकारी क्रिया ते अधर्म क्रिया
छे, अने शरीरादि जडनी क्रिया ते परवस्तुनी क्रिया छे; पर वस्तुनी क्रिया साथे जीवना धर्म–
अधर्मनो संबंध नथी. आम क्रियानुं यथार्थ स्वरूप जाणवुं ते ज क्रियानुं स्थापन छे. जेओ
क्रियानुं ज स्वरूप समजे नहि अने जडनी क्रियाने जीवनी माने, जडनी क्रिया आत्मा करे अथवा
जडनी क्रियाथी आत्माने लाभ–नुकशान थाय एम माने, अगर अधर्मनी क्रियाने धर्मनी माने
तेओ क्रियानुं उत्थापन करे छे. अज्ञानीओने वस्तुओना यथार्थ स्वरूपनी खबर नथी तेथी कई
वस्तुनी केवी क्रिया होय ते तेओ जाणता नथी. कोने क्रियानुं स्थापन कहेवाय अने कोने क्रियानुं
उत्थापन कहेवाय ते समजाववामां आवे छे. –
१. साची समजणरूप क्रियाथी धर्मनी शरूआत थाय छे पण पुण्यनी क्रियाथी धर्म थतो
नथी–आम समजवुं तेमां धर्मनी क्रियानुं धर्मक्रिया तरीके स्थापन छे अने अधर्मनी क्रियानुं
अधर्मक्रिया तरीके स्थापन छे–तेथी ते यथार्थ छे.
२. पुण्यक्रियाथी धर्म थाय एम मानवुं तेमां साची समजणरूप धर्म क्रियानुं उत्थापन छे
अने अधर्मक्रियानुं धर्मक्रिया तरीके स्थापन छे–तेथी ते मान्यता मिथ्या छे.
३. जीवने पोतानी भावक्रियाथी लाभनुकशान थाय अने शरीरनी क्रियाथी लाभ
नुकशान न थाय एम समजवुं तेमां जीवनी क्रियानुं जीवनी क्रिया पणे स्थापन छे अने जडनी
क्रियानुं जडक्रियापणे स्थापन छे–ते यथार्थ छे.
४. जीवने पोतानी भावक्रियाथी लाभनुकशान थाय अने शरीरनी क्रियाथी पण लाभ–
नुकशान थाय–एम मानवुं तेमां अजीवनी क्रियानुं जीवपणे स्थापन छे तेथी ते मिथ्या छे.
५. शरीरनी क्रिया जीव करी शके एम मानवुं तेमां जडनी क्रियानुं उत्थापन छे अने
जीवनी क्रियानुं जडपणे स्थापन छे तेथी ते मिथ्या छे.
६. शरीरनी क्रिया स्वतंत्र पणे ज थाय छे, जीव तेनो कर्ता नथी एम समजवुं तेमां
जडनी क्रियानुं जड पणे स्थापन छे अने जीवनी क्रियानुं जीव पणे स्थापन छे.
‘क्रिया’ एटले पर्यायनो फेरफार, पर्यायनुं बदलवुं; क्रियानुं स्वरूप जाणवा माटे वस्तुनुं
स्वरूप जाणवुं जोईए.
व्रतधारी संत मुनिने व्रतनो जे शुभ विकल्प ऊठे छे ते आत्मानी धर्म क्रिया नथी पण
विकारनी क्रिया छे. आत्म द्रव्यमांथी ज मोक्ष पर्याय आवे छे तेथी आत्मानी क्रियाथी ज–
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी ज–मोक्ष थाय छे, परंतु विकारनी क्रिया के शरीरनी क्रिया मोक्षनुं
कारण नथी. आत्मामांथी पण मुक्ति थाय अने व्रतादिना शुभविकार भावथी पण मुक्ति थाय
एम मानवुं तेमां विकारी क्रिया अने अविकारी धर्म क्रियाने एक पणे मानी, तेथी ते एकांत
मान्यता छे, –मिथ्यामान्यता छे.