Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA With the permisson of the Baroda Govt. Regd. No. B. 4787
order No. 30-24 date 31-10-44
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भूतार्थपणे नवेतत्त्वोमां एक आत्मा ज प्रकाशमान छे एम ज्ञानी जाणे छे; भूतार्थस्वभावने जाणतां पर्यायने पण
जाणी लेवानो ज्ञाननो स्वभाव छे. भूतार्थ स्वभावने जाणवो ते निश्चय अने पर्यायने जाणवी ते व्यवहार छे.
‘हुं जीव’ एवो राग अने ‘हुं अजीव नहि’ एवो द्वेष ते बन्नेने ज्ञान जाणनार छे, ए रीते नवेतत्त्वोमां
एकलो आत्मस्वभाव ज प्रकाशे छे.
हे शिष्य! ज्ञानस्वरूप आत्माना भावमां रागमिश्रित नव तत्त्वोने जाण्या, त्यां स्वसन्मुख थतां ते नव
तत्त्वना विकल्प छूटीने ज्ञाननी स्वसन्मुखतामां एकलो आत्मा जणाय तेनी प्रतीत ते ज निश्चय सम्यग्दर्शन छे.
(४३) आत्मार्थी केवो होय?
जेने देव–गुरु–धर्म प्रत्येनुं वलण तथा भक्ति नथी अने जे मात्र संसार–पापमां ज लीन वर्ते छे ते तो तीव्र
दुःखी छे, पाप परिणाम तो झेर जेवां तीव्र दुःखदायक छे. अने दया, दान वगेरे पुण्यभाव ते ओछां दुःखदायक छे.
परंतु ते दयादि शुभभावथी धर्म मानवो तेमां तो मिथ्यात्वनुं अनंतदुःख छे. जे आत्मार्थी जीव होय तेने लक्ष्मी
वगेरेनी रुचि छूटी जाय, संसार तरफनो उल्लासभाव छूटीने सत्स्वभाव प्रत्ये उल्लासभाव आवे; स्वभावनुं
बहुमान आवतां सत्नी प्रभावनानो भाव आवे के अहो, आवा सत् स्वभावनी जगतमां जाहेरात थाय, सत्नी
प्रभावना खातर मारुं सर्वस्व अर्पी दउं! सत्नी प्रभावना खातर मारां तन–मन–धन काम आवे तेमां हुं मने धन्य
समजुं छुं. आम स्वभाव प्रत्येनो साचो उल्लास आवे त्यारे तो ते आत्मार्थी कहेवाय अर्थात् तेने हजी तो धर्म
पामवानी पात्रता प्रगटी छे. पछी स्वभावनी ज रुचि अने बहुमान लावीने तेनो अभ्यास करे, तेनुं ज श्रवण–
मनन करीने यथार्थ ओळखाण अने प्रतीत करतां सम्यग्दर्शनरूपी अपूर्व आत्मधर्म प्रगटे छे.
जेने आत्मानी रुचि अने बहुमान आवे ते जीवने सत्देव–गुरु–धर्म प्रत्येनो उल्लास अने सत्नी
प्रभावनानो भाव आव्या वगर रहे ज नहि. आत्मानी रुचि थई होय छतां पहेलांना जेवा ज विषय–कषाय कर्या
करे एम बने नहि; जिज्ञासु जीवने विषय–कषायादिनी तीव्र लीनता टळीने देव–गुरु–धर्म प्रत्ये रागनी दिशा वळे.
पण ते जीव रागथी धर्म माने नहि.
जो सत्देव–गुरु–धर्मनां प्रेम करतां स्त्री, कुटुंब शरीर उपरनो प्रेम वधारे होय तो ते पापपरिणामवाळो
मिथ्याद्रष्टि छे.
जो आत्माना स्वभावनी रुचि करतां देव–गुरु–शास्त्रनी अने ते तरफना रागनी प्रीति वधी जाय तो ते
पुण्य परिणामवाळो मिथ्याद्रष्टि छे.
(४४) भक्तनी भावना केवी होय?
भगवाननो साचो भक्त केवो होय? के जेम भगवान परिपूर्णदशाने पाम्या छे तेम हुं पण मारी शक्तिथी
परिपूर्ण स्वरूपे छुं, मारी शक्तिमांथी ज मारी पूर्णदशा प्रगटवानी छे; आम भगवाननो भक्त आत्माने
ओळखनारो होय छे, पण ते भगवान पासेथी आशा राखतो नथी. हे नाथ! हे वीतरागी परमात्मा! आपे रागादि
टाळीने सत् स्वरूप प्रगट कर्युं छे, तमे तमारा स्वभावमांथी भगवान थया छो, मारा पूरा स्वभावनी प्रतीत वडे
हवे हुं भगवान थवानो छुं. प्रभो, आप विकार अने भावरहित छो तेम हुं पण एवा ज स्वरूपे छुं. अविनाशी
स्वभावमां स्थिर रहीने आपे नाशवानभावोनो नाश करीने पूर्ण पद प्रगट कर्युं तेम हे नाथ! हुं पण स्वभावना
भानपूर्वक आ नाशवान भावोनो नाश करीने अविनाशीपद प्रगट करवानो ज कामी छुं. जेवी पूर्णता आपे प्रगट
करी छे तेवी ज पूर्णता माटे मारो आत्मा लायक छे, पण हजी तेवी पूर्णता प्रगटी नथी तेथी पूर्णता प्रत्येनी रुचि वडे
स्तुतिनो विकल्प उठयो छे–आवा भान सहित ज्ञानीनी भक्ति होय छे.
(४प) आत्मानुं अचिंत्यपणुं
शुद्धस्वरूपनी भावना वाळो भगवाननो भक्त कहे छे के–हे जिनेश्वरदेव! आप सर्व प्रकारे शुद्ध छो, अचिंत्य
छो. मन–वाणी द्वारा आपना स्वरूपनुं चिंतवन कोई रीते थई शकतुं नथी. मन–वाणी–देहथी के पुण्यना विकल्पथी
शुद्धात्मानुं चिंतवन थई शके तेम नथी, पण शुद्धात्मस्वरूप मन–वाणी–देह अने विकल्पथी पार छे–एवुं स्वरूप आपे
प्रगट कर्युं छे. हे नाथ! अत्यारे मारुं ज्ञान अपूर्ण छे–अल्प छे, ते अल्पज्ञानवडे केवळज्ञानादि संपूर्ण जणातां नथी.–
एम जाणीने भक्तो केवळज्ञाननी भावना करे छे. आत्मानो स्वभाव कल्पनामां आवी शके नहि, कल्पना तो राग
छे, रागवडे अरागी स्वभाव प्रतीतमां आवे नहि. आ रीते स्वभाव अने रागवच्चे भेद पाडीने स्वभावनुं
माहात्म्य भक्तो करे छे. आत्माने अचिंत्य कह्यो एटले मन–वाणी–देहथी के विकल्पथी तेनुं चिंतवन थई शकतुं नथी
पण ज्ञानवडे चैतन्यनुं चिंतवन थई शके छे. जे आवा अचिंत्यस्वभावने जाणे ते ज भगवाननी अचिंत्य भक्ति
करे. जेने अचिंत्य आत्मानुं माहात्म्य आव्युं ते आत्मा पोते पण अचिंत्य ज छे. (चालु...)