भान हतुं अने पूर्णदशाना हरखमां ते वखते राज्यमां पंचकल्याण महोत्सव धामधूमथी कराव्यो. आम ज्ञानीओने
पोतानी पूर्णदशा सांभळतां होंश आवे छे, अने भविष्यनी पूर्णताने भावथी नजीक लावीने तेनुं बहुमान करे छे, ए
रीते पूर्णता प्रत्येना पोताना पुरुषार्थने लंबावे छे.
सर्व पापोमां सौथी मोटुं पाप मिथ्यात्वनुं छे. अनंत संसारमां रखडतां, मिथ्याद्रष्टि जीव अनंतवार
नाखे एवा कसाईखानानो मालिक थयो. तत्त्वनी यथार्थ वात जो नहि समजे तो संसार चक्रमां फरी अनंतवार एवुं
करशे. नवतत्त्वोने जाणे नहि अने नव तत्त्वोथी पार आत्माने माने नहि तथा पुण्यमां धर्म मानीने तेनां अभिमान
करे एवो जीव दयादि पाळीने स्वर्गमां जाय तोपण त्यांथी नीकळीने संसार चक्रमां रखडतां अनंतवार कसाई थशे
अने नरक–निगोदमां अनंतकाळ काढशे. नवमी ग्रैवेयके जाय एवा शुभभाव अने सातमी नरके जाय एवा
अशुभभाव ए बन्ने आस्रव होवाथी एक ज जात छे. निगोदना जीवने पण अल्प शुभ भाव तो होय छे तेना
शुभभाव अने द्रव्यलिंगी मुनिना शुभभाव ए बन्नेनी एक ज जात छे. मिथ्याद्रष्टि जीव पुण्य आस्रवने सारो अने
पापास्रवने खराब माने छे–ते ज मिथ्यात्व छे. पुण्य अने पाप बन्ने आस्रव होवाथी दुःखदायक–बूरां छे. आत्माना
भानवगर शुभ अने अशुभभाववडे ज संसार चक्र चाली रह्युं छे.
आजे (–भादरवा सुद–१) ‘श्री कुंदकुंद प्रवचन मंडप’ मां प्रवेशनुं मंगळमुहूर्त छे. आजना मंगळमुहूर्ते
जन्ममरणनो अंत आवी जाय तेवुं कार्य करवुं ए ज मंगळ छे. पात्र थईने भगवानना श्रीमंडपे आव्यो अने
आत्मस्वरूप समज्यां वगर पाछो जाय एम बने ज नहि. भवरहित भगवानने ओळखीने जिज्ञासाथी भगवानना
श्रीमंडपे आव्यो अने तेनो मोक्ष न थाय एम ज्ञानीओ मानता नथी. तेम आ पण कुंदकुंद भगवाननो श्रीमंडप छे,
अने तेमां कुंदकुंद भगवाने कहेली आ तेरमी गाथा वंचाय छे, तेमां कहेलुं आत्मानुं स्वरूप जे समजे ते जीव अवश्य
सम्यग्दर्शन पामीने एकावतारी जेवुं महाकार्य करी जाय. समजण पूर्वक निर्णय करवो जोईए, समजीने हा पाडे तेनी
वात बराबर छे, पण समज्या वगर, नाना बाळकनी जेम हा ए हा पाडे तेम न चाले.
‘श्री प्रवचनमंडप’ मां जे गाथा वंचाणी ते गाथा नीचे प्रमाणे छे–
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं।। १३।।
आस्त्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष ते सम्यकत्व छे. १३.
विकल्पो छोडीने एक शुद्ध आत्माने ज प्रतीतमां लेवो ते भूतार्थनय छे अने तेथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
बराबर प्रतीत ते पण खरूं सम्यग्दर्शन नथी, केमके आत्मा एक अखंड छे तेने नव भेद वडे मानवो ते मिथ्यात्व छे.
अने नवतत्त्वना विकल्पोथी पार एक अखंडस्वभावे आत्माने प्रतीतमां लेवो ते ज निश्चयथी सम्यग्दर्शन छे. जे
नवतत्त्वो जणाय छे ते नवे तत्त्वोने जाणनार पोते तो नव भेदथी रहित एकला चैतन्यस्वरूपे छे–एम जो रागथी
जरा छूटो पडीने रागरहित चैतन्यनी प्रतीत करे तो सम्यग्दर्शन छे.
भूतार्थ स्वभावमां न ढळे तो सम्यग्दर्शन थाय नहि.