Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १८ः आत्मधर्मः ३७
परंतु समये समये स्वभावना जोरे पुरुषार्थनी वृद्धि ज करे छे अने तेथी निर्मळता वधती जाय छे. आ रीते
स्वभावद्रष्टिथी ते वृद्धिगत ज छे तेथी अल्पकाळे पुरुषार्थ पूरो करी मोक्ष पामे छे. ज्ञानीनी द्रष्टि काळ के कर्म उपर नथी
पण स्वभाव उपर ज छे. कर्मो कोईपण जीवने नडतां ज नथी.
(३६) परमात्मानी स्थापना
श्री पद्मनंदी आचार्य कहे छे–हे प्रभु! आदरवा योग्य होय तो आपना जेवुं वीतरागी स्वरूप ज छे. आवा
भानपूर्वक जेओ आपना चरणे बे हाथ जोडी भक्ति करे छे तेमने मोक्षदशा ज छे केम के तेमणे अंतरथी
वीतरागपणानुं ज बहुमान कर्युं छे.
राग अने आत्माने पृथक करीने जेणे परमात्मदशा प्रगट करी एवा भगवंतने नमस्कार करनारो जीव पण
आत्मा अने रागनी भिन्नताना भानवाळो छे, ते जीवे संसारनी सर्व गतिनो अंत नजीक कर्यो छे. वीतराग–सर्वज्ञने
ओळख्या अने तेमनी भक्ति करी तेणे पोताना आत्म कमळमां वीतराग प्रभुनी स्थापना करी, तेना काळजे निरंतर
प्रभु–प्रभु थई रह्युं होय. वीतराग देवना आत्माने तेना स्वभावपणे ओळख्या तेनी वात छे. जेने परमात्मानी
यथार्थभावे ओळखाण थई तेणे पोताना काळजे परमात्मपणाने स्थाप्युं, जे दशा परमात्मा पाम्या ते दशा ज ते पामे.
त्रणकाळ त्रणलोकमां सति बीजाने न इच्छे, तेम हे नाथ! अमे तारा भक्त, वीतरागताना उपासक! अमे रागने
आदरणीय न मानीए. अमारे तारा सिवाय हवे बीजानो आदर नथी. बीजो कोई देव हवे अमने ललचावी जाय तेम
नथी. छोकराने बहाने के लक्ष्मीने बहाने कोई प्रकारे अमे कुदेवादिथी ललचाईए नहि, प्राण जाय पण बीजाने न
मानीए. हे नाथ! अमारा हृदयमां वीतरागदेव वसाव्या एटले हवे अमारा आत्मामां वीतरागता ज वसी, हवे राग
तोडीने अमे पोते ज वीतराग थशुं त्रिकाळ स्वभावना आदरमां हवे रागनो आदर नथी.
हे जिनेश्वर! आप वीतराग थया, आपना चरण कमळने कई रीते सेवीए? आखा चैतन्यमां ज अमे तमने
परोवी दईए छीए, हवे अमारा आत्मामां केवळज्ञान थशे. राग रही शकशे नहि. आम सम्यग्द्रष्टि भक्तोने आत्माना
असंख्य प्रदेशे उल्लास थाय छे अने तेओ पोताना आत्मामां प्रभुता स्थापे छे.
हे नाथ! जे भव्य जीवोए तारी ओळखाण करीने तारा चरणमां मस्तक झुकावीने नमस्कार कर्या तेनुं मस्तक
हवे बीजाने नमे नहि. केम? कारण के हे भगवान! तारा चरणे जेनुं मस्तक नम्युं तेना उपर मोहधूलीनुं कांई चाली
शकतुं नथी. अर्थात् जे तने यथार्थपणे ओळखीने नमस्कार करे छे तेनो मोह अवश्य टळी जाय छे.
(३७) वीतराग देव प्रत्ये भक्तनी अर्पणता
हे नाथ! आश्चर्य छे के जगतना मोहांध जीवो मरेली स्त्री वगेरेनो फोटो राखे छे अने तेना होंशथी दर्शन करे
छे. अरेरे, चामडां अने हाडकांनी रुचि–प्रेम आवे छे. परंतु साक्षात् परम कल्याणकारी श्री वीतरागदेवना विरह वखते
पण तेमनी प्रतिमा वगेरेनो आदर–बहुमान अने अर्पणतानी होंश आवती नथी. एवा जीवो भगवानना भक्त नथी
पण संसारना ज भक्त मिथ्याद्रष्टि छे. जेने निस्पृह वीतरागी स्वभावनी प्रतीति अने होंश–प्रीति होय तेने
वीतरागस्वभावी प्रभुनी भक्ति–अर्पणता उछळ्‌या वगर रहे नहि.
(३८) पोताना परिणामोनो विवेक
‘पुण्यथी धर्म थतो नथी अने आत्मा परवस्तुनुं कांई करी शकतो नथी’ एम निश्चय स्वभावनी वात सांभळे
पण पर्यायमां भूमिका प्रमाणे रागादिनो विवेक न करे तो ते अज्ञानी छे. जेने स्वभावनुं यथार्थ भान होय तेने
पर्यायना भावनो विवेक अवश्य होय ज. लग्न वगेरे प्रसंगोमां उल्लास करे छे पण देव–गुरु–धर्मनी प्रभावनाना
प्रसंगोमां जेने उल्लास नथी थतो ते तीव्रसंकलेश परिणामी छे. देव–गुरु–शास्त्रने माटे कांई करवुं नथी परंतु पोताना
परिणाम सुधारवा माटेनी वात छे.
(३९) पूर्ण पवित्रदशानुं बहुमान
श्री विमलनाथ भगवान त्रीजा भवे राजा हता, ज्यारे तेमणे सर्वगुप्त केवळी भगवानना श्रीमुखेथी सांभळ्‌युं
के हवे बेज भव बाकी छे, त्रीजा भवे हुं तीर्थंकर थईने मोक्ष जवानो छुं, त्यारे तेओने एकदम उत्साह आव्यो अने
पोते ते ज भवे (–तीर्थंकर थया पहेलां–) तीर्थंकरपणा समान महोत्सव कर्यो अने पंचकल्याणक उजव्यां. हुं तीर्थंकर
थईश त्यारे मारो महोत्सव इन्द्र वगेरे बीजाओ तो करशे पण अत्यारे हुं ज मारी पूर्णदशानो महोत्सव करुं! एम पूर्ण
थवानी