Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४७३ः १७ः
आवे तेने एवी निःशंकदशा थाय के हवे अवतार नथी. आ वात अंतरथी समजवानी छे, बहारथी के शुभभावथी आ
समजाय तेवुं नथी.
(३२) स्वभावनुं माहात्म्य
आ समयसारमां आचार्यदेव सम्यग्दर्शननुं ज माहात्म्य दर्शावे छे. अनंतकाळथी अनंतभवमां साचा स्वभावनी
वात कदी समज्यो नथी. शरीर जड छे, तेनो कर्ता आत्मा नथी. पुण्य–पापना अहंकारने लीधे ज्ञाता स्वभावनुं माहात्म्य
अने प्रतीत आवती नथी. स्वभावनुं माहात्म्य कर्या वगर सम्यग्दर्शन थाय नहि, अने सम्यग्दर्शन वगर मोक्षनो उपाय
थाय नहि.
(३३) सुख–दुःखनो विवेक
फटकडी अने साकरना स्वाद वच्चेनो विवेक माखी पण करे छे, अने फटकडीने छोडीने साकर उपर बेसे छे, रसने
लीधे साकर उपरथी उठती नथी केमके रस लाग्यो छे. माखी पण पोताना तूच्छज्ञान वडे ए प्रकारनो विवेक करे छे तो पछी
जेमनामां हित–अहितनो विवेक करवा जेटली ज्ञानशक्ति छे एवा मनुष्योने स्वभाव अने विकारना स्वादना भेद पाडतां
केम न आवडे? स्वभावनो स्वाद निराकूळ छे अने विकारनो स्वाद दुःखदायक आकुळतामय छे. पापनो रस तीव्र दुःखरूप
छे अने पुण्यनो रस पण दुःख ज छे, आत्मानो स्वाद ते बन्नेथी जुदी जातनो सुखरूप छे. जेम समुद्रना पाणीमां वसनारी
माछलीने जमीन उपर आवतां दुःख थाय अने अग्निमां पडतां तो घणुं ज दुःख थाय. तेम अनाकुळ स्वरूप ज्ञानसमुद्र
आत्मा छे, तेना अनुभवमांथी खसीने शुभभावमां आववुं ते माछलीने पाणीमांथी जमीन उपर आववानी जेम, दुःख रूप
ज छे अने अशुभभावमां जवुं ते तो, माछलीने अग्निमां पडवानी जेम, अत्यंत दुःखरूप छे. आम पुण्य–पाप बन्नेथी
रहित त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप आत्मानी प्रतीत करवी ते ज सम्यग्दर्शन छे.
(३४) सम्यग्दर्शन केम थाय?
सम्यग्दर्शननुं स्वरूप समजावतां श्रीगुरु कहे छे के–हे शिष्य! त्रिकाळ एकरूप ज्ञानमय भाव ते ज तारो स्वभाव
छे, क्षणिक पर्यायमां भले विकार होय, पण ते तारुं वास्तविक स्वरूप नथी. माटे तुं पर्याय द्रष्टि छोडीने द्रव्यस्वभावनी
द्रष्टिथी अनुभव कर, तेथी तने तारो शुद्ध स्वभाव प्रतीतिमां आवशे अने सम्यग्दर्शन थशे. ज्ञानीओने साधक दशामां
विकारभाव होय परंतु, ते क्षणिक अभूतार्थ छे एम ज्ञानीओ जाणता होवाथी तेओने तेनुं माहात्म्य होतुं नथी, पण विकार
रहित भूतार्थ स्वभावनुं ज माहात्म्य होय छे. जेटलो भाव स्वभावमांथी प्रगटे तेटलो ज भाव मारो, पण स्वभावथी
खसीने परना लक्षे जे कोईपण विकारभाव प्रगटे ते मारो भाव नथी आम ज्ञानीने स्वभाव भाव अने विकार भाव वच्चे
भेदज्ञान वर्ते छे, ते ज सम्यग्दर्शन छे. धर्म तो धर्मी एवा आत्मामां छे, ए आत्माने यथार्थपणे जाणवो ते ज सम्यग्दर्शन
छे. स्वप्नेय पण जे भेगां नथी एवा शरीरादिनां काम सहेलां लागे तथा विकारी भावो करवा सहेला लागे अने तेमां होंश
आवे पण जो परथी अने विकारथी भिन्न चैतन्य स्वभावने न जाण्यो अने ते प्रत्येनो उत्साह न आव्यो तो फरीथी
स्वप्नेय आवा सुयोगनो भेटो नहि थाय. अने जो चैतन्यनो महिमा लावीने तेने जाण्यो तो कृतकृत्य थई, उत्कृष्ट स्वरूप
आराधना करीने अल्पकाळे सिद्ध थई जशे.
ज्ञानथी थाकेलो कोई जीव प्रश्न करे छे के जीवादि नव तत्त्वो जाणवा अने वळी ते नव तत्त्वोथी पार
आत्मानी श्रद्धा करवी ते सम्यग्दर्शन छे एम कह्युं, परंतु ए बधुं तो अघरूं लागे छे, तेथी “आत्मा चैतन्य छे”
एटली ज श्रद्धा राखीए तो सम्यग्दर्शन छे के नहि? त्यारे श्रीगुरु तेनो उत्तर आपे छे के–“आत्मा चैतन्य छे”
एटलुं ज मात्र मानवाथी सम्यग्दर्शन नथी केमके एवुं तो अन्य मति पण माने छे. माटे प्रथम नव तत्त्वो यथार्थपणे
जाणीने, तेमांथी शुद्ध जीवतत्त्वनी प्रतीतथी ज सम्यग्दर्शन छे. अरे भाई! संसारना अनेक प्रकारना कामोमां
होशियारी बतावो छो अने तेमां अनेक पडखां समजवा माटे घणो काळ गाळो छो, तो हवे आत्मानी अपूर्व
समजण करवामां ‘अघरुं लागे छे’ एम कहीने पुरुषार्थहीन थवुं ते योग्य नथी. फक्त ‘हुं चैतन्य’ एटलुं ज मानीने
थाकीने बेसी जवुं ते नहि पालवे, पण जेम छे तेम बधा पडखेथी निर्णय करवो पडशे; बधा पडखेथी निर्णय करीने
पछी शुद्ध चैतन्य स्वभावनी श्रद्धा करवी ते सम्यग्दर्शन छे.
(३प) पुरुषार्थ
सम्यग्द्रष्टि जीवो पूर्ण स्वभावने स्वीकारे छे, पूर्ण स्वभावना जोरे तेओ पुरुषार्थनी वृद्धि ज भाळे छे. काळ पाकशे
त्यारे मुक्ति थशे. एवी पराधीन द्रष्टि नथी