Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १६ः आत्मधर्मः ३७
अनंत गुणा काळ सुधी सिद्ध सुखनो भोगवटो छे. विकार करतां स्वभावनो पुरुषार्थ अनंत गुणो छे, तेथी विकारदशा
करतां स्वभाव दशानो काळ पण अनंतगुणो छे–एटले के–भूतकाळ करतां भविष्यकाळनी पर्याय दरेक द्रव्योमां
अनंतगुणी छे; ए ज द्रव्यनी पूर्णता छे. जेओ द्रव्यनी पूर्णताना स्वरूपने न समजी शके अने द्रव्यनुं स्वरूप समजवामां
ज जेनी भूल होय तेनी दरेक प्रयोजनभूत बाबतमां भूल होय ज.
वळी जो भूतकाळ करतां भविष्यकाळ एक ज समय अधिक होय तो,–दरेक समये भविष्यकाळमांथी एकेक समय
भूतकाळमां भळी जाय छे तेथी, भूतकाळ करतां भविष्यकाळ घटी जवो जोईए परंतु अनंत काळ पछी पण भूतकाळ
करतां भविष्यकाळ तो अनंत गुणो ज रहेवानो छे.
(२८) सिद्ध जीव अने सिद्ध समय
६ मास ८ समयमां ६०८ जीवो सिद्ध (–मुक्त) थाय छे. ६ मास ८ समयना असंख्यात समय थाय छे, तेमांथी
जे जे समयोमां जीव सिद्ध थया होय ते समयोने ‘सिद्ध समय’ कहेवाय छे अने जे समयो खाली गया होय ते समयोने
‘असिद्ध समय’ कहेवाय छे.
अनादि अनंतकाळमां जेटला सिद्ध समयो छे तेना करतां सिद्ध जीवोनी संख्या संख्यात गुणी छे. अने सिद्ध
जीवो करतां असिद्ध समयोनी संख्या असंख्यात गुणी छे, तेमज सिद्ध समयो करतां असिद्ध समयोनी संख्या पण
असंख्यात गुणी छे. (जुओ, श्रीधवल भाग–३, पा. ३०)
(२९) राग–द्वेष कोण करे छे?
प्रश्नः–
राग–द्वेष विकार जीव करे छे के स्वयं थाय छे?
उत्तरः– जीवनी पर्यायमां राग–द्वेष पोते करे तो थाय छे, न करे तो थता नथी.
प्रश्नः– राग–द्वेषनो कर्ता जीव छे, तो शुं राग–द्वेष जीवनो स्वभाव छे?
उत्तरः– एक क्षण पूरता राग–द्वेष जीवनी पर्यायनी योग्यताथी जीव करे छे, परंतु जीवना त्रिकाळी स्वभावमां
राग–द्वेष नथी तेथी स्वभाव द्रष्टिए जीव राग–द्वेषनो कर्ता नथी. परंतु जीवनी पर्यायमां जे राग–द्वेष थाय छे ते कांई
जड कर्म वगेरे कोई करावतुं नथी. पर्यायमां पोते करे तो थाय छे. कर्मनी सत्ताना कारणे राग–द्वेष थता नथी. जो कर्मना
कारणे राग–द्वेष थता होय तो जीवे शुं कर्युं? जो कर्मो ज रागादि करे तो जीवनो नाश थई जाय.
प्रश्नः– जो कर्म जीवने कांई हेरान नथी करतुं तो तेनी वात शा माटे करी छे?
उत्तरः– जीव राग–द्वेष करे छे ते जीवनो स्वभाव नथी, पण विकार छे. ते विकारमां निमित्त तरीके कर्म छे एम
जणाववा माटे कर्मोनुं वर्णन कर्युं छे, पण कर्म जीवने हेरान करे छे एम मानवा माटे कह्युं नथी.
(३०) एक मात्र सम्यग्दर्शन
अनंतकाळथी संसारमां रझळतां जीवे एक सेकंडमात्र सम्यग्दर्शननी प्राप्ति करी नथी. एक मात्र सम्यग्दर्शननी
प्राप्ति वगर ज अनंत संसारमां रझळवुं थयुं छे. दया, व्रत, त्याग वगेरे शुभभाव अनंतवार कर्या अने हिंसा, चोरी
वगेरे अशुभभाव पण अनंतवार कर्या, अनेकवार द्रव्यलिंगी मुनि थयो अने अनेकवार मोटो कसाई थयो, पण जे रीते
छे ते रीते आत्मस्वभावने कदी जाण्यो नथी. आत्मस्वभावने जाण्या वगर पुण्य–पापनो ने शरीरादिनो मोह–अहंकार
अंतरथी टळे नहि. जो पुण्य–पाप अने शरीरथी विरुद्ध एवा आत्मस्वभावनी रुचि करे तो पुण्य–पापनो अहंकार टळे.
अहा! जगतने पुण्यमां सुखनो मिथ्या आभास थाय छे पण सम्यग्दर्शननुं साचुं सुख भासतुं नथी! एक सेकंडमात्रनुं
सम्यग्दर्शन अनंत जन्ममरणनो नाश करे छे.
कोई पूछे छे के–आवुं सम्यग्दर्शन तो न समजाय, तो अमारे शुं करवुं?
तेनो उत्तरः– अरे भाई! तने संसारनुं समजाय अने आत्मानुं केम न समजाय? जो आत्मानुं स्वरूप न
समजाय तो संसारमां रखडो! ए सिवाय अन्य कोई मार्ग नथी. सम्यग्दर्शन वगर पुण्य करे तो पण तेमां संसारनुं ज
दुःख छे. स्वभावथी आत्मानो महिमा करे तो जरूर समजाय. आत्मस्वभाव पुण्य–पाप रहित छे, ज्ञानस्वरूप छे–एवी
श्रद्धा करतां पुण्य–पापनो महिमा उडी जशे अने पुण्य–पाप रहित पूर्ण स्वभावने मानतां पूर्ण स्वतंत्र दशा थशे.
(३१) अहिंसा
‘पर जीवने न मारवो ते अहिंसा’ ए व्याख्या यथार्थ नथी, पण अज्ञान अने विकार भावोथी पोताना
आत्माने बचाववो ते ज साची अहिंसा छे. विकारभाव वडे पोताना आत्मानो घात थाय छे ते ज हिंसा छे अने
सम्यग्ज्ञानादि वडे ते विकारभावनो नाश ते ज अहिंसा छे.
विकार अने भवरहित जेवो पोतानो स्वभाव छे तेवो अनुभववामां