तारा शरणे आव्या, हवे अमारे नरक–तीर्यंच ए बे गति माटे हवे अमारी योग्यता रही नथी. प्रभु! आपनी
ओळखाणपूर्वक आपनी भक्ति करनारने हलकी गतिना भव रहे एम अमे मानता नथी. नरक तिर्यंच गतिने तो ताळां
ज देवाई गया, पण देव अने मनुष्यमां पण हवे वधारे भव नथी, अल्पकाळे चतुर्गतिनो अंत छे–एम अमारो निर्णय
छे अने आपना केवळज्ञानमां आपे पण एम ज जोयुं छे एम अमने प्रतीत छे.
अवतार नहि अने जो तारा भक्तने अवतार रहे तो तारी भक्ति कोण करे? हे नाथ! जे जीवोए सर्वज्ञ वीतरागीपणे
आपने जगतथी जुदा तारव्या ते जीवोए खरेखर आत्मानो पूरो स्वभाव ज तारव्यो. आपश्री समान पूरा स्वभावने
जेणे स्वीकार्यो तेने भव होय नहि.
अमे कुदेवादिने सेव्या नथी के जेथी नरकादि गति होय? अने पुण्यादि विकारमां धर्म मान्यो नथी के जेथी झाझा भव
होय? हे नाथ! अमे तो वीतरागी देवने ओळखीने स्वीकार्या छे अने रागरहित वीतरागी स्वभावने स्वीकार्यो छे, तेथी
हवे भव नथी.
भवरहितपणानी निःसंदेहता थाय छे, परंतु जे शुभराग छे तेना वडे आत्माने खरेखर लाभ थतो नथी. जो राग अने
वीतरागता वच्चेना विवेकपूर्वकनी भक्ति होय तो ज ते साची भक्ति छे, पण जो रागथी ज लाभ माने तो तेनी भक्ति
साची नथी.
काळद्रव्यना जेटला समयो छे तेटली ज दरेक द्रव्यनी पर्यायो छे.
एक ज समय अधिक मान्यो तेनो अर्थ ए थयो के–जगतना बधा द्रव्योनी जेटली पर्यायो थई गई तेना करतां फक्त
एक ज वधारे (=भूतकाळना समयो+१) पर्याय थवानी बाकी छे. परंतु ए वात यथार्थ नथी. भूतकाळमां द्रव्यनी
जेटली पर्यायो थई गई तेना करतां अनंत गुणी (= भूतकाळना समयो × अनंत) पर्यायो भविष्यमां थवानी छे. आ
वातस्वभावथी ज बेसे तेम छे. तेनो एक न्याय ए छे के– संसारना काळ करतां सिद्ध दशानो काळ अनंत गुणो ज होय.
संसारना विकार भावमां मर्यादित पुरुषार्थ छे अने सिद्धदशाना भावमां तेनाथी अनंतगुणो अमर्यादित पुरुषार्थ छे, तेनुं
फळ संसारना काळ करतां