।। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।।
वर्ष चोथुंपोष
अंक त्रीजो
संपादक
रामजी माणेकचंद दोशी
वकीलर४७३
भेदभक्ति अने अभेदभक्ति
भरत चक्रवर्तीना नानी उंमरना पुत्र भक्तिनुं वर्णन करे छे–
भक्ति बे प्रकारनी छे–एक भेदभक्ति अने बीजी अभेदभक्ति. ‘समवसरणमां श्री जिनेन्द्र
भगवान छे, अमृतलोक अर्थात् मोक्ष मंदिरमां श्री सिद्धभगवान छे’ ए प्रमाणे क्रमथी तेमने पोताना
आत्माथी अलग राखीने ध्यान करवुं ते भेदभक्ति छे. अने ते जिन–सिद्धोने त्यांथी काढीने (– अर्थात्
तेओनुं लक्ष छोडीने) पोताना आत्मामां ज तेमनुं संयोजन करवुं अने पोताना आत्मामां अर्थात्
हृदयमंदिरमां जिन–सिद्ध बिराजमान छे ए प्रमाणे ध्यान करवुं ते अभेदभक्ति छे, ते भक्ति मुक्तिनुं
कारण छे.
जिनेन्द्र भगवानने पोताना आत्माथी अलग राखीने ध्यान करवुं ते भेदभक्ति छे अने पोताना
आत्मामां राखीने ध्यान करवुं अर्थात् पोताना आत्माने ज जिनस्वरूपे ओळखीने ध्याववो ते
अभेदभक्ति छे; ए जिनशासन छे.
ध्यानना अभ्यासकाळमां भेदभक्तिने आदरवी जोईए; ज्यां सुधी आ आत्माने ध्याननुं सामर्थ्य
प्राप्त न थाय अर्थात् अभेदभक्ति न प्रगटे त्यां सुधी अभेदना लक्षे भेदभक्तिनुं अवलंबन करवुं
जोईए. पछी अभेदभक्तिनो आश्रय करवो जोईए. अभेदभक्तिमां आत्माने स्थिर करवो ते अमृतपद
अर्थात् सिद्धदशानुं कारण छे.
आत्मा जिनेन्द्र अने सिद्ध भगवान समान शुद्ध छे–ए प्रमाणे ओळखाणपूर्वक प्रतिदिन पोताना
आत्मानुं ध्यान करवुं ते जिन–सिद्धभक्ति छे, तथा ते ज निश्चयरत्नत्रय छे अने ते मुक्तिनुं साक्षात्
कारण छे.
शिला, कांसु, पीतळ, सुवर्ण वगेरे द्वारा जिनमुद्रा तैयार करावीने तेनो सम्यक् प्रकारे आदर करवो
अने उपासना करवी ते भेदभक्ति छे अने अचल थईने पोताना आत्माने ज जिनपणे अनुभववो ते
अभेदभक्ति छे.
(‘भरतेशवैभव’ भाग ४ पानुं ९–१० ना आधारे)
वार्षिक लवाजम३९छुटक अंक
अढी रूपियाशाश्चत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक पत्रचार आना
* आत्मधर्म कार्यालय–मोटा आंकडिया काठियावाड *