Atmadharma magazine - Ank 040
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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।। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।।
वर्ष चोथुंमाघ
अंक चोथो
संपादक
रामजी माणेकचंद दोशी
वकीलर४७३
कल्याणनी मूर्ति।। ।। श्री सर्वज्ञाय नमः ।।
।। श्री वीतरागाय नमः ।।
हे जीवो! जो तमे आत्मकल्याणने चाहता हो तो स्वतः शुद्ध अने समस्त प्रकारे परिपूर्ण
आत्मस्वभावनी रुचि अने विश्वास करो, तेनुं ज लक्ष अने आश्रय करो. ए सिवाय बीजुं जे कांई
छे ते सर्वनी रुचि, लक्ष अने आश्रय छोडो. केम के सुख स्वाधीन स्वभावमां छे, परद्रव्यो तमने
सुख के दुःख करवा समर्थ नथी. तमे तमारा स्वाधीन स्वभावनो आश्रय छोडीने पोताना दोषथी
ज पराश्रयवडे अनादिथी पोतानुं अमर्यादित अकल्याण करी रह्या छो. माटे हवे सर्व पर द्रव्योनुं
लक्ष अने आश्रय छोडीने स्व द्रव्यनुं ज्ञान, श्रद्धान तथा स्थिरता करो. स्व द्रव्यमां बे पडखां छे–
एक तो त्रिकाळ शुद्ध स्वतः परिपूर्ण निरपेक्ष स्वभाव छे अने बीजुं क्षणिक वर्तमान वर्तती विकारी
हालत छे. पर्याय पोते अस्थिर छे तेथी तेना लक्षे पूर्णतानी प्रतीतरूप सम्यग्दर्शन नहि प्रगटे, पण
जे त्रिकाळी स्वभाव छे ते सदा शुद्ध छे, परिपूर्ण छे अने वर्तमान पण ते प्रकाशमान छे तेथी तेना
आश्रये, लक्षे पूर्णतानी प्रतीतरूप सम्यग्दर्शन प्रगट थशे. ए सम्यग्दर्शन पोते कल्याण स्वरूप छे
अने ते ज सर्व कल्याणनुं मूळ छे. ज्ञानीओ सम्यग्दर्शनने ‘कल्याणनी मूर्ति’ कहे छे. माटे हे जीवो,
तमे सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करवानो अभ्यास करो.
वार्षिक लवाजम४०छुटक अंक
अढी रूपियाशाश्चत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक पत्रचार आना
* आत्मधर्म कार्यालय–मोटा आंकडिया काठियावाड *