Atmadharma magazine - Ank 040
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 3 of 21

background image
वर्ष चोथुंसळंग अंकमाघआत्मधर्म
अंक चोथो४०र४७३
दुःखनुं कारण अने ते टाळवानो उपाय
(मोक्ष अधिकार गाथा–२९७ना व्याख्यानोमांथी)
प्रश्नः– सुख आत्मामां छे, पैसा वगेरेमां सुख नथी, तो पछी ते छोडीने चाली
नीकळवुं ते सुखनो उपाय छे ने?
उत्तरः– पैसा वगेरे परद्रव्य छे, परद्रव्यनुं ग्रहण के त्याग आत्मा
करी शकतो नथी. दुःखथी छूटवा माटे दुःखनां कारणो जाणीने तेनो त्याग
करवो जोईए. पैसा वगेरे परद्रव्यमां दुःख नथी, तेमज तेना अभावथी
दुःखनो अभाव थतो नथी, आ कथननो अर्थ एवो न समजवो के पैसा
वगेरेनो प्रेम राखी मूकवानुं कहे छे! पैसा वगेरे प्रत्येनी रुचि ते तो तीव्र
दुःख छे. परंतु पैसा वगेरेनो संयोग छूटवा मात्रथी दुःखथी छूटातुं नथी.
खरेखर दुःखनुं मूळ कारण अज्ञान छे ते अज्ञानने ज पहेलां छोडवुं जोईए.
पैसा वगेरे परद्रव्योनो त्याग आत्मा करतो नथी पण पैसामां सुख एवी
मिथ्यामान्यता अने ममताभाव ते ज फेंकी देवा जेवा छे; आ रीते मोह
टाळवो ते ज दुःख टाळवानो उपाय छे.
ए ध्यान राखवुं के जे जीवने पैसा,
स्त्री, आहार वगेरे प्रत्येनो राग टळी गयो होय तेने ते प्रकारनो संयोय
स्वयमेव होतो ज नथी. जो दुःख अने तेनुं कारण पोतानी अवस्थामां माने
तो पोतामांथी ते टाळवानो उपाय करे, पण जो दुःख अने तेनुं कारण
पोतामां न माने तो ते टाळवानो उपाय केम करे? दुःख आत्मानी
अवस्थामां ज छे अने तेनुं कारण अज्ञान तथा रागद्वेष छे; ते टाळवानो
उपाय सम्यग्ज्ञान अने वीतरागता ज छे–एम ज्ञानीओए दर्शाव्युं छे.
* * * * * * * * *
जीवननुं कर्तव्य
अध्यात्मतत्त्वनी वात समजवा आवनार जिज्ञासुने वैराग्य अने कषायनी मंदता तो होय ज. जेने
कषायनी मंदता अने वैराग्य होय तेने ज आत्मस्वरूप समजवानी जिज्ञासा जागे. मंद कषायनी वात तो बधाय
करे छे, पण जे सर्व कषायथी रहित छे एवुं पोताना आत्मतत्त्वनुं स्वरूप ते समजीने जन्म–मरणना अंतनी
निःशंकता आवी जाय तेनी वात अहीं जिनधर्ममां छे. अनंतकाळे तत्त्व समजवाना टाणां आव्या अने देह
छूटवानां टाणां आव्यां एवा काळे जो कषायने मूकीने आत्मस्वरूप नहि समजे तो क्यारे समजशे? पुरुषार्थ–
सिद्धउपायमां तो कह्युं छे के जिज्ञासु जीवने पहेलां सम्यग्दर्शनपूर्वक मुनिपणानो उपदेश आपवो; तो अहीं तो
हजी पहेलां सम्यग्दर्शन प्रगट करवानी वात छे. भाई, मानवजीवननी देहस्थिति पुरी थतां जो स्वभावनी रुचि
अने परिणति साथे न लई जाय तो तें तारा जीवनमां कांई आत्मकार्य कर्युं नथी. देह छोडीने जतां जीवनी साथे
शुं आवशे? जो जीवनमां तत्त्व समजवानी दरकार करी हशे तो ममतारहित स्वरूपनी रुचि अने परिणति साथे
लई जशे. अने जो ते दरकार नहि करी होय तथा परनां ममत्व करवामां ज जीवन काढयुं हशे तो तेने मात्र
ममताभावनी आकुळता सिवाय बीजुं कांई साथे जवानुं नथी. कोईपण जीवने पर वस्तुओ साथे आवती नथी,
मात्र पोतानो भाव ज साथे लई जाय छे.