Atmadharma magazine - Ank 040
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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माघः २४७३ः ६३ः
माटे अहीं आचार्यदेव कहे छे के चेतनावडे आत्मानुं ग्रहण करवुं. जे चेतनावडे आत्मानुं ग्रहण कर्युं छे ते सदा
आत्मामां ज छे. जेणे चेतना वडे शुद्ध आत्माने जाण्यो छे ते कदी पर पदार्थने के परभावोने आत्माना स्वभाव
तरीके ग्रहण करता नथी पण शुद्धात्माने ज पोतापणे जाणीने तेनुं ज ग्रहण करे छे, एटले ते सदाय पोताना
आत्मामां ज छे. कोई पूछे के– कुंदकुंद प्रभु क्यां छे? तो ज्ञानी उत्तर आपे छे के–खरेखर कुंदकुंद प्रभु स्वर्गादि बाह्य
क्षेत्रोमां नथी पण तेमना आत्मामां ज छे. जेणे कदी कोई परपदार्थोने पोताना मान्यां नथी अने एक
चेतनास्वभावने ज स्वपणे अंगीकार कर्यो छे, ते चेतनास्वभाव सिवाय बीजे क्यां जाय! जेणे चेतनावडे आत्मानुं
ग्रहण कर्युं छे ते सदा पोताना आत्मामां टकी रहे छे. जेमां जेनी द्रष्टि पडी छे तेमां ज ते कायम रहेला छे. पोतानी
चैतन्यभूमिकाथी बहार खरेखर कोई जीव रहेतो नथी, पोतानी चैतन्य भूमिकामां जेवा भाव करे तेवा भावमां ते
रहे छे, ज्ञानी ज्ञानभावमां रहे छे अने अज्ञानी अज्ञानभावमां रहे छे. बहारमां गमे ते क्षेत्र होय पण जीव पोतानी
चैतन्यभूमिकामां जे भाव करे ते भाव ने ज ते भोगवे छे, बहारना संयोगने भोगवतो नथी.
(श्रीसमयप्राभृत गाथा २९७ना व्याख्यानमांथी)
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श्री सर्वज्ञाय नमः ।। ।। श्री वीतरागाय नमः
श्रावण वद १३ थी भादरवा सुद प सुधीना धार्मिक दिवसो दरमियान थयेला
श्री समयसारजी गाथा १३ तथा श्री पद्मनंदी पंचविंशतिका शास्त्रना ऋषभजिनस्तोत्र उपरनां
व्याख्यानो अने चर्चाओनो टूंकसार लेखांकः ४
(आ लेखना नं. प४ सुधीना फकरा अंक ३९मां आवी गया छे, त्यार पछी अहीं आपवामां आवे छे)
(पप) हे जिनेश! आपश्री निष्कारण वैद छो, हुं अनंतकाळथी रोगी छुं. मारा आत्मानी समजण वगर
अनंतकाळथी भावमरण वडे दुःखी थई रह्यो छुं. अनंतकाळथी संसारमां रखडतां मारो कोई साथी न हतो, हवे हे
श्री सर्वज्ञ भगवान, आप साथी मळ्‌या छो, में आपने परमवैद तरीके ओळख्या छे; आपनी सेवाथी मारो भावरोग
अवश्य दूर थशे.
(प६) हे जीव! सर्वज्ञना धर्म सिवाय आ जगतमां कोई शरणभूत नथी, माटे सर्वज्ञदेवे कहेला
आत्मस्वभावनुं आराधन कर. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी, आराध्य आराध्य प्रभाव
आणी; अनाथ एकांत सनाथ थाशे, एना विना कोई न बांह्य स्हाशे.
हे भाई! सर्वज्ञ भगवाने कहेला आत्मस्वभावने सत्य शरणभूत जाणीने, अंतरमां तेनो महिमा लावीने
तेनुं आराधन कर, आराधन कर! स्वभावना आराधनथी ज अनाथपणुं टळीने सनाथपणुं थशे. तेना सिवाय कोई
शरणभूत थशे नहि. सर्वज्ञ भगवान अने तेओए कहेला आत्माना स्वरूपने ओळख्या वगर जीव कोना शरणे धर्म
करशे?
(प७) अज्ञानीने वीतरागनुं खरुं बहुमान आवे नहि अने वीतरागने शुभराग होय नहि. अज्ञानी तो
वीतरागने यथार्थपणे ओळखतो नथी. साधक धर्मात्माने वीतरागनी यथार्थ ओळखाण अने बहुमान छे, पण हजी
पोताने संपूर्ण वीतरागता थई नथी तेथी वीतराग प्रत्येनी भक्तिनो शुभराग आवे छे. जेम योगीओने लक्ष्मी
भोगववानो भाव ज होतो नथी, अने जे मरवानी तैयारीमां छे तेनामां लक्ष्मी भोगववानी ताकात नथी, तेम जेओ
वीतराग थई गया छे तेमने भक्तिनो राग होतो नथी, अने जे कुदेवादिने माने छे, साचा देव–गुरु–धर्मने
ओळखतो नथी ते तो असाध्य–दुर्गतिमां जवानी तैयारीवाळो छे, तेने पण वीतरागी देव–गुरु–धर्म प्रत्ये भक्ति
आवती नथी. साधक धर्मात्माने वीतरागनी ओळखाण छे अने पोताना वीतराग स्वभावनुं भान छे, तेमने राग
वर्ते छे त्यां सुधी वीतरागता प्रत्ये भक्ति–बहुमान आव्या वगर रहेतुं नथी. वीतरागदेवने रागनो संपूर्ण त्याग छे,
अने अज्ञानीने रागनो त्याग करवानुं ज भान नथी. ज्ञानीने संपूर्ण रागथी रहित आत्मानुं भान छे अने रागनो
त्याग करतां शुभराग रही जाय छे तेथी वीतरागनी भक्ति करे छे. परंतु तेओ भक्तिना शुभ रागने पण इच्छता
नथी. शुभरागवडे वीतरागदेवनी भक्ति करवी ते तो भेद भक्ति छे, ते मोक्षनुं साधन नथी, पण राग तूटीने जेटली
स्वरूपमां एकाग्रता वधे छे तेटली अभेद भक्ति छे, अभेदभक्ति ज मोक्षनुं साधन छे.
(प८) हे नाथ, सर्वज्ञदेव! जन्म–मरणनो नाश करवा माटे आप ज वैद छो केमके अमारा निरोग