Atmadharma magazine - Ank 040
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ६४ः आत्मधर्मः ४०
स्वरूपने अने रोगने दर्शावनारा आप ज छो. ‘पर्यायमां राग–द्वेष–मोहरूपी रोग होवा छतां तुं वस्तुस्वभावे
परिपूर्ण, राग–द्वेष–मोहथी रहित छे; माटे निर्दोष वस्तु स्वरूपने जाणीने तेना अवलंबने भाव रोग टाळीने पूर्ण
था.’–आम दर्शावनारा वीतरागसर्वज्ञदेव अने ज्ञानी गुरु ज छे.
(प९) श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
आत्म भ्रांति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद सुजाण;
गुरु आज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान.
(आत्मसिद्धि गाथा–१२९)
जीवने पोताना स्वरूपनी भ्रांति समान बीजो कोई रोग नथी. शरीरमां रोग आवे तेनाथी जीवने दुःख
नथी, अने राग–द्वेष थाय ते पण जीवने अनंत जन्म–मरणनुं कारण नथी परंतु पोताना स्वरूपनुं अजाणपणुं ते ज
सौथी मोटो रोग छे अने ते ज अनंत जन्म–मरणनुं कारण छे. मूळ रोगने जाण्या वगर बीजा उपाय करवाथी रोग
मटे नहि. आत्मस्वरूपनी समजण करे नहि अने शुभ परिणामनी क्रिया करे, कायकलेश करे परंतु ते तो ‘पखालीने
गूमडुं ने पाडाने डाम’ एना जेवी ऊंधाई छे. पोतानी मेळे स्वच्छंदे गमे तेटला उपाय करे तोपण आत्मभ्रांतिनो
रोग टळे नहि. आत्मस्वरूपनी समजण माटे साचा गुरुने ओळखीने तेने अर्पाई जाय, मारुं बधुं खोटुं छे, हुं कांई
ज समज्यो नथी, हुं पामर छुं–एम स्वच्छंदने छोडीने ज्ञानीना बहुमानवडे सत्समागम कर्या वगर सत् समजाय
नहि, माटे कह्युं छे के ‘सद्गुरु वैद्य सुजाण.’ वळी बीजे ठेकाणे श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के ‘पावै नहि गुरु गम
विना, एही अनादि स्थित.
सत् समजनार जीवने एकवार तो सत् निमित्तो मळे ज. कां तो वर्तमान ज्ञानी गुरु
होय अने कां तो पूर्वे ज्ञानीनुं निमित्त मळ्‌युं होय, ते पूर्वना संस्कार वर्तमान याद आवे. परंतु पूर्वना संस्कार वगर
के वर्तमानमां कोई ज्ञानी मळ्‌या वगर, हुं मारी मेळे ज्ञान पाम्यो एम जो कोई जीव माने तो ते स्वच्छंदी छे.
ज्ञानीना निमित्त वगर कोई जीव सत् समजी शके नहि एथी पराधीनता आवती नथी, परंतु अनादि वस्तु स्वभाव
ज एवो छे के सत्मां सत् निमित्त ज होय. सत् निमित्त वगर सत् समजाय नहि. परंतु ‘निमित्तनी कांई असर
थाय छे’ एम न समजवुं.
(६०) सात व्यसनोना पापो करतां पण मिथ्यात्व पाप सौथी मोटुं छे. राग थाय ते तो चारित्रनो दोष छे
अने रागथी लाभ मानवो ते श्रद्धानो दोष छे. श्रद्धानो दोष एटले आत्मस्वरूपनी भ्रांति; ते आत्मस्वरूपनी
भ्रांतिरूप महा रोग टाळवा माटे प्रथम तो साचा गुरुने ओळखीने नक्की करवा जोईए अने तेओ जे प्रमाणे
आत्मस्वरूप कहे छे ते ज प्रमाणे पोते अंतरमां निर्णय करीने समजवुं जोईए. पोते जाते सत्नो विचार अने ध्यान
करवुं ते ज रोग टाळवा माटेनुं औषध छे.
(६१) जन्म–मरणमां अज्ञानभावे अनंत दुःख छे. ज्यां शरीरनी एक आंगळी तूटे त्यां, जाणे के मारूं ज
एक अंग कपाई गयुं एम तीव्र ममत्वबुद्धिपूर्वक राड नाखे छे तो पछी विचार करो के जेने भिन्न आत्मानुं भान
नथी अने शरीरमां ज एकत्वबुद्धि छे तेने आखुं शरीर ज्यारे भींसाईने छूटी जशे त्यारे ममत्वबुद्धिने लीधे केटलुं
दुःखनुं वेदन थतुं हशे? जीवने अज्ञान भावे आवां मरण अनंतकाळथी चाल्यां ज करे छे. आमां संयोग–वियोगनुं
दुःख नथी पण पोताना परिपूर्ण स्वभावने जाण्यो नथी, स्वभावमां संतोष मान्यो नथी अने शरीरादिमां ज
एकत्वपणे सुख मानी राख्युं छे ते मान्यता ज अनंतदुःखमय छे. शरीर तो जड छे, ते आवे के जाय तेनुं दुःख नथी
पण अज्ञानभावे ममतानुं दुःख छे. जीवनमां कदी चैतन्यनी जातने जाणी नथी, वीतरागी देव–गुरु–शास्त्रने
ओळख्या नथी अने आत्मानो महिमा लावीने शरीरथी उदास थई कदी वैराग्य कर्यो
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श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट तरफथी प्रकाशित ग्रंथो नीचेना स्थळोएथी पण मळशे...
१. मुंबईः– “श्री कुंदकुंद स्टोर्स.” स्वदेशी मार्केट, शमी गली, कालबादेवी रोड.
२. अमदावादः– शाह न्यालचंद मलुकचंदः काळुपुर पोस्ट ओफिस पासे, अमृत भुवन, त्रीजे माळे.
३. करांचीः– शेठ मोहनलाल वाघजी. सुतार स्ट्रीट, रणछोड लाईन.
४. गोंडलः– खत्री वनमाळी करसनजी. कापडना वेपारी
आ उपरांत वींछीया, लाठी, वढवाण केम्प अने वढवाण शहेरना श्री जैन स्वाध्याय मंदिरेथी पण मळी
शकशे.