नथी एवा जीवने मरतां दुःख थाय छे. ज्ञानीओने भिन्न चैतन्यनुं भान छे के मारुं सर्वस्व मारामां ज छे, वीतरागी
देव–गुरु–शास्त्र सिवाय अन्यने जीवनमां कदी मान्या नथी अने कदी कोई पर द्रव्योमां सुखबुद्धि करी नथी तेथी देह
छोडवा टाणे पण तेओने स्वभावनी शांति वर्ते छे. पोते असंग चैतन्य छे तेने चूकीने जेणे संगमां पोतापणुं मान्युं
छे तेने जन्म–मरणमां अनंत दुख छे. अनंत जन्म–मरणना दुःखोथी भयभीत थाय, अने जन्म–मरणथी उगारनार
(उगरवानो मार्ग दर्शावनार) श्री सर्वज्ञदेव ज छे एम ओळखीने तेमना प्रत्ये अपार भक्ति उछळे, अने ज्यारे
भक्ति वगेरेना रागथी पण भिन्न पोताना असंग स्वाधीन स्वभावनो अंतरमां महिमा लावीने तेनो अभ्यास
करे त्यारे अल्पकाळमां जन्म–मरणनो अंत लावीने मुक्तदशा पामवा माटेनी पात्रता प्रगटे छे.
पुण्यना योगे सत्देव–गुरु–धर्मनी प्राप्ति थई छे. हे वीतराग! जगतमां अनेक प्रकारनी ऊंधी मान्यतानी भंग जाळ
चाली रही छे ते बधाने ओळंगीने तारा सुधी पहोंचता जीवोने घणी महेनत पडे छे. अनंतकाळथी मानेलां कुदेव–
कुगुरु–कुधर्मने छोडीने आपना सुधी ओळखाण करीने आवतां घणी महेनत पडे छे...परंतु हे नाथ! आपना शरणे
जे पहोंच्या तेने मुक्ति ज छे, निःसंदेह छे. भगवान पोते कांई बीजाने मुक्ति करावी देता नथी परंतु भक्तो पोते
पोताना आत्मानी निःशंकताथी भगवान उपर आरोप करीने कहे छे के हे नाथ, तारा शरणे आव्या, हवे अमारी
मुक्ति ज छे.
भगवानपणे जोयो एटले तेओ कृतकृत्य थई गया छे. परनी उपेक्षा करीने, ज्ञान स्वभाव परिपूर्ण छे एवी
ओळखाणपूर्वक जेने आपनो भेटो थयो तेने जगतनां कोई काम करवानां रहेतां नथी केम के तेने भान छे के हुं
परनो अकर्ता छुं. पहेलां अज्ञानपणे परनुं कर्तृत्व मानतो, पण हवे साक्षीरूप ज्ञान स्वभावने जाणीने स्वभावमां
समाय छे. ज्ञानी सदा कृतकृत्य ज छे केमके तेओ जाणे छे के–मारो आत्मस्वभाव पोते ज अचिंत्य शक्तिवाळो देव
छे, हुं चिन्मात्र चिंतामणि छुं, मारा सर्व कार्यो माराथी ज सिद्ध छे, पछी मारे अन्य वस्तुथी शुं प्रयोजन छे?
अज्ञानीने पोताना आत्मानुं भान नथी अने परनां काम करवानी बुद्धि टळी नथी तेथी ते सदाय अतृप्त–दुःखी
ज छे.
स्वभावने जाण्या पछी, ज्ञातापणे जाणवानुं ज रह्युं अने ज्ञानमां ज ठरवानुं रह्युं केम के आत्मानो स्वभाव ज्ञान ज
छे. ते ज्ञानस्वभावनी एकता वडे ज्ञाननी कचाश होय ते पूरी करीने मुक्ति थाय छे.
नहि, पण कोई जीव आत्मज्ञान पामीने अवधिज्ञान वडे परमाणुने प्रत्यक्ष जाणे छतां ते ज्ञानमां आपनुं केवळज्ञान
प्रत्यक्ष जणाय नहि. हे नाथ! अमे छद्मस्थ जीव गमे तेवुं सूक्ष्मज्ञान करीए तो पण केवळज्ञानथी अधुरुं छे.
आचार्यदेवनी मीट केवळज्ञान उपर छे, ज्ञानानंद स्वरूपमां लीनता करीने, भगवान प्रत्येना विकल्पने तोडीने
केवळज्ञान लेवानी भावना भावे छे. पोताने केवळज्ञाननी प्रतीत तो छे परंतु साक्षात् केवळज्ञान देखातुं नथी,
केवळज्ञान प्रगटया वगर केवळज्ञान साक्षात् देखाय नहि, तेथी आचार्यदेव केवळज्ञाननी भावना करे छे.
चोवीशीमां सौथी प्रथम मोक्ष जनार श्री अनंतवीर्यना बंधु” एम वांचवुं.