प्रगट करवुं जोईए. आपना समान परिपूर्ण स्वरूपने श्रद्धा–ज्ञानमां स्वीकार्युं छे परंतु पुरुषार्थनी कचाशथी अंतरनी
रमणता अधूरी रही जाय छे तेथी केवळज्ञानने पहोंची शकतो नथी. जो राग न होय तो हे नाथ! हुं भक्ति केम करुं?
ज्यारे संपूर्ण स्वरूप रमणता वडे राग तोडीश त्यारे भक्ति पूरी थशे अने मारी पर्याय पण पूरी थशे. आ रीते,
भक्ति करतां करतां आचार्यदेव पूर्ण स्वभावने पहोंची वळवानो ऊग्र पुरुषार्थ उपाडे छे.
करशे? रागनी अने जडनी वात तो दूर रहो परंतु पोताना क्षयोपशमज्ञाननो अहंकार करीने रोकावुं तेमने
पालवतुं नथी. अपूर्णज्ञानमां तेओ संतोष मानता नथी. जडनो संयोग, शुभराग के अधुरुं ज्ञान ए कोईथी
केवळज्ञान थतुं नथी, परंतु ए बधानुं लक्ष छोडीने एकला ज्ञानस्वरूपमां स्थिरता करवी ते ज केवळज्ञाननुं कारण
छे. हे नाथ! अमे अमारा शुद्ध स्वभावना भानपूर्वक पूर्ण पुरुषार्थने जोयो छे, पूर्णने प्रतीतमां लीधो छे, अने ते
पूर्णनो अंश प्रगटयो छे पण हजी घणो पुरुषार्थ करवानो बाकी छे. प४मी गाथामां कृतकृत्यपणुं कह्युं हतुं, त्यां पूर्ण
स्वभावनी द्रष्टिए वात हती; अहीं पर्यायनी वात छे तेथी पामरता वर्णवे छे. हे जिनेश! हुं आपना जेवो
कृतकृत्य छुं एवी ओळखाण थई छे पण हजी स्थिरतानी क्रिया बाकी छे. श्रद्धा अपेक्षाए कृतकृत्य छुं अने चारित्र
अपेक्षाए पामरता छे.
बंने विशेषणथी ओळखीने तेनो महिमा अने स्तुति करी छे.
छे. परमाणुने प्रत्यक्ष जाणनार पण आपने न जाणे एवा सूक्ष्म होवा छतां आपनुं ज्ञान एटलुं बधुं विशाळ छे के
त्रण काळ अने त्रण लोक आपना ज्ञानमां एक समयमां समाई जाय छे. प्रभो! मारा ज्ञाननी पूर्ण पर्यायनुं सामर्थ्य
पण एटलुं ज छे. जे जीव आवा मोटा ज्ञानस्वभावने पोतापणे स्वीकारे ते रागादिने कदापि पोताना माने नहि,
अपूर्णताने पोतानुं स्वरूप स्वीकारे नहि, अने ज्ञानस्वभाव सिवाय अन्य कोईनुं कर्तापणुं स्वीकारे नहि. पूर्ण–
स्वभावना लक्षे पुरुषार्थ उपाडयो ते अपूर्णताने तोडीने अल्पकाळमां पूर्णता लावे ज.
त्रणकाळनुं जाणे छतां जाणतां वार न लागे, आवा पूर्ण ज्ञानस्वभावनी प्रतीतपूर्वक जे भगवाननी स्तुति करे ते ज
साची स्तुति छे अने एवी स्तुति करनारा जीवो स्तुतिना रागने पोताना स्वभावमां स्वीकारता नथी तेथी
अल्पकाळे पूर्ण स्वभावना अवलंबनवडे ते रागने तोडीने पूर्ण थाय छे. हे नाथ! ज्यांसुधी आवी दशा न प्रगटे
त्यांसुधी मारी भक्तिमां अधूराश छे. मारी पूर्णता थशे त्यारे भक्ति पण पूरी थशे, पछी भक्तिनो विकल्प नहि
ऊठे.
दानश्चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिनेदिने।। ७।।