Atmadharma magazine - Ank 041
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA With the permisson of the Baroda Govt. Regd. No. B. 4787
order No. 30-24 date 31-10-44
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अभव्य–नालायक जीवनुं चिह्न
(चक्रवर्ती भरतना नानी नानी उंमरना एक सो पुत्रोने वैराग्य थतां तेओ
श्री ऋषभदेवप्रभुना समवसरणमां जिनदीक्षा लेवा माटे गया छे अने ते वखते भगवानने
विनंती करवाथी तेमना प्रत्ये भगवान उपदेश करे छे. ते प्रसंगनुं आ कथन छे.)
र्मयोगने माटे ‘ते काळ के आ काळ’ एवी आवश्यकता नथी, ते गमे त्यारे अनुभवी शकाय छे. जे निर्मळ
चित्तथी ए धर्मयोगनो अनुभव करे छे ते लौकांतिक, सौधर्मेन्द्र आदि पदवी पामीने बीजा भवे निश्चयथी मुक्ति
प्राप्त करे छे.
व्यवहार धर्मनो जे अनुभव करे छे तेने स्वर्ग संपत्ति तो नियमथी मळशे, एमां शक नथी परंतु तेमां
भवनाश अर्थात् मोक्ष प्राप्ति माटे कोई नियम नथी. आत्मानुभव ए ज मोक्षने माटे नियम छे. आत्मानुभव थतां
मोक्षनी प्राप्ति अवश्य थाय छे.
संसारमां अविवेकी मूढ आत्माओने निश्चयधर्मयोगनी प्राप्ति थती नथी. जे पोते तो ए निश्चयधर्मयोगथी
शून्य रहे छे अने निश्चयधर्मने धारण करनारा सज्जनो प्रत्ये वींछीनी समान रहे छे, अने तेओनी निंदा करे छे
एवा दुष्टचित्त जीवोने ते धर्मयोग कई रीते प्राप्त थई शके?
भव्ययोगमां बे भेद छे–एक सारभव्य अने बीजा दूरभव्य. सारभव्य एटले आसन्नभव्य, ते आत्माने
ध्यानमां देखे छे; परंतु दुरभव्योने आत्मानुं दर्शन थतुं नथी. तोपण जेओ सारभव्य जीवोनी वृत्ति प्रत्ये अनुराग
व्यक्त करे छे तेओ भविष्यमां आत्मसिद्धि प्राप्त करे छे.
सारभव्यजीवो आत्मानुं दर्शन करे छे, ते वखते भव्य तो प्रसन्न थाय छे, पण ते वखते अभव्य जेवा जीवो
तेनी निंदा करे छे, तेना प्रत्ये द्वेष करे छे, तेना फळ स्वरूपे ते नरकादिगतिमां पहोंची जाय छे.
ज्यारे व्यवहारनो विषय तेना सामे आवे त्यारे तो बडो उत्साह देखाडे छे, परंतु सुविशुद्ध
निश्चयनयनो विषय तेनी सामे आवे त्यारे चूपचाप नीकळी जाय छे, तेनो तिरस्कार करे छे–आ अभव्यनुं
चिह्न छे.
ते अभव्यने पोताने तो आत्मयोगनी प्राप्ति थई शकती नथी; जे जीवो स्वानुभव करे छे तेमने देखीने
तेना हृदयमां क्रोध–अरुचि प्रगट थाय छे, अने ते भव्योनी निंदा करे छे. जो तेमनी ते निंदा न करे तो तेने ध्रुव अने
अविनाशी संसार केम प्राप्त थाय!!
ते अभव्य जीव द्वादशांगशास्त्रोमांथी अगीआर अंग सुधी पठन करी जाय छे तथा बाह्यपरिग्रहोने छोडीने
निर्ग्रंथ तपस्वी थाय छे, परंतु ते बाह्याचरणमां ज रहे छे. अंतरंग आत्माने जाणतो नथी.
अंदरना कषायोने छोडया वगर बहारमां बधुं छोडे तेथी शुं प्रयोजन छे? सर्प पोतानी काचळी छोडे तेवी शुं
ते विषरहित थई जाय छे? आत्मसिद्धि माटे तो अंदर अंशमात्र पण राग–द्वेष–मोहनो परिग्रह न होवो जोईए
अने आत्मा पोते पोतामां लीन थाय–ए आवश्यक छे.
आवा प्रकारना उपदेशने अभव्य जीव मानतो नथी. ध्याननी अनेक प्रकारे निंदा करे छे, कटाक्ष करे छे, अने
जेओ ध्यान करे छे तेमनी मश्करी करे छे के ‘ए ध्यान शुं करे छे, कई रीते करे छे, आत्मा–आत्मा करे छे पण ते क्यां
छे?’ इत्यादि प्रकारे विवाद करे छे.
पोताने ध्यानसिद्धि नहि होवाथी ध्यान प्रत्येना द्वेषथी ते अभव्य जीव अनेक प्रकारे बहानाबाजी
(खोटा बहाना) करे छे के–‘आने आत्मध्यान न होय अने तेने आत्मध्यान न होय, आ काळ ध्यान माटे उचित
नथी, फलाणो काळ जोईए, ध्यान माटे अचुक सामग्री जोईए अने अमुक जोईए, तमारुं ध्यान अने अमुक ध्यान
जुदी जातनुं छे–इत्यादि’–आ प्रमाणे अभव्य जीव आत्मध्याननो नकार करे छे.
(‘भरतेशवैभव भाग–४ पानुं–८९–९०ना आधारे)
मुद्रकः चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय, दासकुंज, मोटा आंकडिया, काठियावाड
प्रकाशकः श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, मोटा आंकडिया, ता. प–३–४७