Atmadharma magazine - Ank 041
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४७३ः ९९ः
करे तेवुं तेने निमित्त कहेवाय. आवी वस्तु स्वभावनी स्वाधीनतानो ढंढेरो कुंदकुंद भगवान अने अनंत केवळीओ
जाहेर करी गया छे. अज्ञानीनी संयोगी द्रष्टि छे, ज्ञानीनी स्वभावद्रष्टि छे. अज्ञानी कहे छे योग्य निमित्त होय तो
कार्य थाय. ज्ञानी कहे छे के वस्तुमां पोताना स्वभावथी कार्य थाय त्यारे अनुकुळ निमित्त होय ज. दरेक जड के चेतन
पदार्थनी अवस्था तेनी पोतानी ताकातथी–(योग्यताथी) थाय छे. वस्तुनी शक्ति त्रिकाळी होय छे अने योग्यता
एक समय पूरती होय छे.
जे समये जेवी योग्यता होय त्यारे तेवुं कार्य अवश्य थाय छे. द्रष्टांत तरीके माटी द्रव्यने
अन्य पदार्थोथी जुदुं बताववा एम कहेवाय के माटीमां घडो थवानी लायकात छे. पण ज्यारे माटी द्रव्यनी ज
पर्यायनो विचार करवानो होय त्यारे तो, माटीमां जे समये घडो थवानी लायकात थाय छे त्यारे ज तेमां घडारूप
अवस्था थाय छे. त्यार पहेलां तेनामां पींडरूप वगेरे अवस्थानी लायकात होय छे. आ रीते, कार्य थवानी लायकात
एक ज समय पूरती होवाथी ‘कुंभार आव्या पहेलां माटीमांथी घडो केम थयो नहि’ एवा कोई प्रश्ननो अवकाश
रहेतो नथी. तेम आत्मामां पण दरेक पर्यायनी लायकात स्वतंत्र छे.
जे पर्यायमां पुण्य–पापरूप विकार करे छे ते पर्यायमां आत्मानो पुरुषार्थ ज त्यां अटकी जाय छे. बीजी
पर्यायमां स्वभावद्रष्टिना पुरुषार्थथी ते लायकात फेरवी नांखे तो फरी शके छे. आ रीते दरेक समयनी पर्याय पण
पारिणामिकभावे सिद्ध थाय छे. परपदार्थो कारण नथी तेमज पूर्व पर्याय कारण नथी पण ते ज समयनी लायकात
कारण छे. कारण–कार्यमां समयभेद नथी. विकार पर्याय पण पारिणामिकभावे छे एम नक्की कर्या पछी, निमित्तनी
अपेक्षाए तेने उदयभाव कहेवाय छे.
सम्यग्दर्शनमां देव–गुरु–शास्त्र वगेरे बाह्य पदार्थो निमित्त क्यारे कहेवाय? जे स्वतंत्र निरपेक्ष द्रव्यने
समजे तेने ते आरोपथी निमित्त कहेवाय, पण जे स्वतंत्र द्रव्य समजे नहि तेने माटे तो ते सम्यग्दर्शननां निमित्त
पण कहेवाय नहि. सम्यग्दर्शननी उत्पत्तिमां आत्माना अंतरंग शुद्ध परिणाम ते ज मूळ कारण छे.
नाटक–समयसारमां पं. बनारसीदासजीए कह्युं छे के–
शिष्य प्रश्न करे छे–‘आत्मा स्वाधीन छे के पराधीन?’
उत्तरमां श्रीगुरु कहे छे के–द्रव्यद्रष्टिए आत्मा स्वाधीन छे अने पर्यायद्रष्टिए पराधीन छे. अज्ञानीओ
पराधीनतानो अर्थ एवो करे छे के कर्म वगेरे पर द्रव्यो आत्माने परतंत्र करीने विकार करावे छे. पण तेम नथी.
आत्माने कोई पर द्रव्य आधीन करतुं नथी परंतु आत्मा पोते स्वद्रव्यद्रष्टि भूलीने पर उपरनी द्रष्टि करे छे, त्यारे ते
विकारी थाय छे–आज पराधीनपणुं छे. स्वभाव उपरनी द्रष्टिए जीवने विकार थाय नहि पण पर उपरनी द्रष्टिए
विकार थाय–ए अपेक्षाए पर्यायद्रष्टिथी आत्माने पराधीन कहेवाय छे. खरेखर दरेक पदार्थ पोताना द्रव्य–क्षेत्र–
काळ–भावथी सत् छे–स्वतंत्र छे. पोताथी सत् पदार्थने परथी कांई पण लाभ–नुकशान थाय ए मान्यता मिथ्याबुद्धि
छे. जो आत्मा स्वभाव द्रष्टि करे तो स्वाधीनता प्रगटे छे अने जो पर्यायद्रष्टिमां अटके तो पराधीन–विकारी थाय छे.
परंतु बंनेमां पोते स्वतंत्र छे. पर लक्ष करीने विकारी थाय तोपण पोते स्वतंत्रपणे ज थाय छे. कोई पर पदार्थ तेने
परतंत्र बनावतुं नथी. आ वस्तुस्वभावनी स्वतंत्रतानो ढंढेरो समजवानी खास जरूर छे अने ते स्वतंत्रता
समजवी ते ज आत्माने माटे मंगळिक छे. ते स्वतंत्रता समजवा माटे ज आ ‘भगवानश्री कुंदकुंद प्रवचन मंडप’ छे.
***
सम्यग्ज्ञान–दीपिका (पुष्प–१६)
श्रीमान क्षुलक ब्रह्मचारी धर्मदासजी कृत आ ग्रंथमां आत्मानुभवनी अद्भुत प्रेरणा छे. आ ग्रंथ
अध्यात्मथी भरपूर छे, अने सम्यग्ज्ञानरूपी दीपकवडे चैतन्यस्वरूप आत्मानुं दर्शन करावे छे. सेंकडो टूंका द्रष्टांतो वडे
आत्म–स्वभावनुं वर्णन कर्युं छे. ते उपरांत आ ग्रंथमां लगभग २० चित्रो आप्यां छे, अभ्यासी मुमुक्षुओए आ
ग्रंथनुं अत्यंत मनन अवश्य करवा योग्य छे. आ ग्रंथनुं गुजराती भाषांतर छपाईने फागण सुद १ना रोज प्रगट
थयुं छे. पडतर किंमत रूा. १–४–० छे पण तेनी किं. रूा. १–०–० राखवामां आवी छे.
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अष्टाह्निका महोत्सव
फागण सुद ७ थी १प सुधी अष्टाह्निका महोत्सव छे. आ दिवसो दरमियान देवो नंदीश्वरद्वीपमां बिराजमान
शाश्वत जिनप्रतिमाओनुं पूजन करवा जाय छे अने त्यां भक्तिपूर्वक महोत्सव उजवे छे.