Atmadharma magazine - Ank 041
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ९८ः आत्मधर्मः ४१
‘करवी पडे के न करवी पडे’ ए प्रश्ननो अवकाश ज नथी.
वळी अज्ञानी एम माने छे के भले व्याप्यव्यापकपणे (एकमेक थईने) आत्मा परनुं कांई न करी शके, पण
परना काममां निमित्त तो थाय ने? एम माननार पण निमित्ताधीन द्रष्टिवाळो मिथ्यात्वी छे. निमित्त–उपादानना
नामे जीवोमां घणा गोटा चाले छे. ज्यारे ज्यारे जे वस्तुनी क्रिया थाय त्यारे तेनी स्वतंत्र पर्यायथी ज ते थाय छे.
अने त्यारे निमित्तरूप अनुकूळ पदार्थ होय छे. परंतु एकवार तो एवी स्वतंत्र द्रष्टि करवी जोईए के मारो त्रिकाळी
स्वभाव कदी कोईने निमित्त पण नथी–एम निरपेक्षद्रष्टि वगर सम्यग्दर्शन थाय नहि.
समयसारनी आत्मख्याति टीकामां श्री अमृतचंद्रसूरिए कह्युं छे के–
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत् करोति किम्।
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।।६२।।
आत्मा ज्ञान छे, पोते ज ज्ञान छे, ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? आत्मा परभावनो कर्ता छे एम मानवुं
ते अज्ञानी–व्यवहारीजीवोनो मोह छे. व्यवहारी अज्ञानी जीवो पोताने पर पदार्थना कर्ता माने छे. अज्ञानभावे पण
आत्मा विकार करे, परंतु परमां तो कांई करी शके नहि.
प्रश्नः–व्यवहारने हेय कहो छो, तो शुं सम्यग्दर्शन–ज्ञान अने चारित्र ए त्रणने जुदा कहेवारूप जे व्यवहार
छे ते पण हेय छे?
उत्तरः–सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने भेदरूपे जाणवा ते व्यवहार छे, व्यवहारने जाणवो ते मिथ्यात्व नथी,
केमके वस्तुना स्वभावमां ज कथंचित् गुणभेद छे. परंतु ते भेदने जाणतां छद्मस्थने विकल्प आवे छे, ते भेदना
विकल्पनो आश्रय करवो ते मिथ्यात्व छे. गुणभेदरूप व्यवहार तो वस्तुमां ज छे, पण परनुं करवानी ताकात तो कोई
वस्तुमां नथी. पुण्य–पापना भावने जाणवा ते व्यवहारनय छे, पण ते पुण्य–पाप के व्यवहारना आश्रये सम्यग्दर्शन
नथी. सम्यग्दर्शन एवी चीज छे के वाणी–विकल्पथी ते पकडाय तेम नथी. साचा देव–गुरु–शास्त्रने मानवाथी पण
वास्तविक सम्यग्दर्शन नथी केम के ते पण पर वस्तु छे. असंगी चैतन्यस्वभावनी प्रतीत वगर सम्यग्दर्शन थाय
नहि.
जडनी अवस्था जडथी स्वतंत्र जेम थवानी होय तेम ज थाय, आवी मान्यता ते नियतवाद नथी पण
सम्यक्श्रद्धानुं कारण छे केमके तेवो वस्तुस्वभाव छे. जेम जडनी अवस्था स्वतंत्र क्रमबद्ध छे, तेम चैतन्यनी अवस्था
पण क्रमबद्ध पोताथी थाय छे. आत्मामां जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ज क्रमबद्ध थवानी; आ श्रद्धामां अनंत
पुरुषार्थ छे. जेणे एक समयनी पर्यायनो स्वीकार कर्यो तेने केवळज्ञाननी अने आत्मानी प्रतीत थई गई. जडनी
अवस्था तेना क्रमबद्ध नियम प्रमाणे थाय छे एवी श्रद्धा थतां जडनो तो ज्ञाता थईने ते प्रत्ये उदासीन थयो. हवे
पोतामां जे क्रमबद्ध अवस्था थाय छे तेनो आधार आत्मद्रव्य छे–एम द्रव्यद्रष्टि थई, एटले पर्यायद्रष्टि अने रागनी
द्रष्टि टळी गई. आ रीते वस्तुस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान थया वगर क्रमबद्ध–पर्यायनी श्रद्धा थाय नहि, क्रमबद्ध पर्याय
कहो के स्वतंत्र वस्तु स्वभाव कहो, तेनी प्रतीतमां ज सम्यग्दर्शननो अपूर्व पुरुषार्थ छे.
ज्यां बधा ज द्रव्योनी अवस्था क्रमबद्ध पोतपोताथी थाय छे, त्यां ‘निमित्त होय तो थाय’ ए वात ज क्यां
रही? पहेलां स्वतंत्र स्वभावनुं ज्ञान करे अने दरेक पर्यायने पण स्वतंत्र कबुले पछी ज निमित्तनुं ज्ञान साचुं थाय.
ज्यां सुधी स्वतंत्र द्रव्य–गुण–पर्यायने न समजे त्यां सुधी जीवने निमित्तनुं ज्ञान पण यथार्थ होय नहि.
निमित्त छे ते तो सम्यग्ज्ञाननो विषय छे. सम्यग्ज्ञान स्व अने पर बंनेने जाणे छे. पहेलां निरपेक्ष
स्वभावने द्रष्टिमां स्वीकार्या वगर ज्ञान सम्यक् थाय नहि अने ज्ञान साचुं न थाय त्यां सुधी ते स्व–परने यथार्थ
जाणे नहि. बीजी चीज छे पण तेनाथी आ जीवमां कांई पण विकृति थती नथी, पोताना पुरुषार्थथी ज थाय छे.
धर्मद्रव्य अने अधर्मद्रव्य लोकमां सर्वत्र छे. ज्यारे पदार्थ चाले त्यारे तेने धर्मद्रव्य निमित्त कहेवाय छे अने
स्थिर रहे त्यारे अधर्मद्रव्य निमित्त कहेवाय छे. ज्ञानीओ वस्तुनी स्वाधीन शक्तिने जुए छे के जे पदार्थमां तेवी
लायकात छे ते पोतानी शक्तिथी चाले छे अगर स्थिर रहे छे, अज्ञानी पराधीन द्रष्टिथी जुए छे के निमित्त छे माटे
आम थाय छे अने निमित्त नथी माटे आम थतुं नथी. आ द्रष्टिमां ज महान भेद छे. निमित्त तो ‘धर्मास्तिकायवत्’
छे. वस्तु पोतानी शक्तिथी जेवुं कार्य