
‘करवी पडे के न करवी पडे’ ए प्रश्ननो अवकाश ज नथी.
नामे जीवोमां घणा गोटा चाले छे. ज्यारे ज्यारे जे वस्तुनी क्रिया थाय त्यारे तेनी स्वतंत्र पर्यायथी ज ते थाय छे.
अने त्यारे निमित्तरूप अनुकूळ पदार्थ होय छे. परंतु एकवार तो एवी स्वतंत्र द्रष्टि करवी जोईए के मारो त्रिकाळी
स्वभाव कदी कोईने निमित्त पण नथी–एम निरपेक्षद्रष्टि वगर सम्यग्दर्शन थाय नहि.
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।।६२।।
आत्मा विकार करे, परंतु परमां तो कांई करी शके नहि.
विकल्पनो आश्रय करवो ते मिथ्यात्व छे. गुणभेदरूप व्यवहार तो वस्तुमां ज छे, पण परनुं करवानी ताकात तो कोई
वस्तुमां नथी. पुण्य–पापना भावने जाणवा ते व्यवहारनय छे, पण ते पुण्य–पाप के व्यवहारना आश्रये सम्यग्दर्शन
नथी. सम्यग्दर्शन एवी चीज छे के वाणी–विकल्पथी ते पकडाय तेम नथी. साचा देव–गुरु–शास्त्रने मानवाथी पण
वास्तविक सम्यग्दर्शन नथी केम के ते पण पर वस्तु छे. असंगी चैतन्यस्वभावनी प्रतीत वगर सम्यग्दर्शन थाय
नहि.
पण क्रमबद्ध पोताथी थाय छे. आत्मामां जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ज क्रमबद्ध थवानी; आ श्रद्धामां अनंत
पुरुषार्थ छे. जेणे एक समयनी पर्यायनो स्वीकार कर्यो तेने केवळज्ञाननी अने आत्मानी प्रतीत थई गई. जडनी
अवस्था तेना क्रमबद्ध नियम प्रमाणे थाय छे एवी श्रद्धा थतां जडनो तो ज्ञाता थईने ते प्रत्ये उदासीन थयो. हवे
पोतामां जे क्रमबद्ध अवस्था थाय छे तेनो आधार आत्मद्रव्य छे–एम द्रव्यद्रष्टि थई, एटले पर्यायद्रष्टि अने रागनी
द्रष्टि टळी गई. आ रीते वस्तुस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान थया वगर क्रमबद्ध–पर्यायनी श्रद्धा थाय नहि, क्रमबद्ध पर्याय
कहो के स्वतंत्र वस्तु स्वभाव कहो, तेनी प्रतीतमां ज सम्यग्दर्शननो अपूर्व पुरुषार्थ छे.
ज्यां सुधी स्वतंत्र द्रव्य–गुण–पर्यायने न समजे त्यां सुधी जीवने निमित्तनुं ज्ञान पण यथार्थ होय नहि.
जाणे नहि. बीजी चीज छे पण तेनाथी आ जीवमां कांई पण विकृति थती नथी, पोताना पुरुषार्थथी ज थाय छे.
लायकात छे ते पोतानी शक्तिथी चाले छे अगर स्थिर रहे छे, अज्ञानी पराधीन द्रष्टिथी जुए छे के निमित्त छे माटे
आम थाय छे अने निमित्त नथी माटे आम थतुं नथी. आ द्रष्टिमां ज महान भेद छे. निमित्त तो ‘धर्मास्तिकायवत्’
छे. वस्तु पोतानी शक्तिथी जेवुं कार्य