Atmadharma magazine - Ank 041
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४७३ः ९७ः
जडना कार्योनो अहंकार करे अर्थात् जडना कार्योथी पोताने लाभ–नुकशान माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, आत्माना चैतन्य
स्वभावनुं खून करनार छे.
कर्मो पण जड पदार्थ छे, ते आत्माने कांई करी शके नहि. आत्मा पोतानी पर्यायमां जेवो पुरुषार्थ करे तेवुं
कार्य थाय. पण कर्मो करे तेम थाय–एवा प्रकारनी मान्यता मिथ्याद्रष्टिनी छे. आत्मा कदी पण पर द्रव्योने आधीन
नथी. पोते पोताना ज पुरुषार्थना दोषथी अटके छे. परंतु अज्ञानीओ वस्तुनी स्वाधीनताने जाणता नथी तेथी
अनंतकाळथी पोताना पुरुषार्थनो दोष न जोतां पर पदार्थनो वांक माने छे. जो पोतानी पर्यायनो दोष जाणे तो
द्रव्य–स्वभावना जोरे ते टाळवा प्रयत्न करे. परंतु कर्मोनुं ज जोर माने अने कर्मो मंद पडे तो आत्मामां धर्म करवानी
पात्रता प्रगटे एम माने तो ते कदी पोतानो स्वाधीन पुरुषार्थ उपाडी शके नहि. आत्मा पोते गुण के दोष पोताना ज
पुरुषार्थथी करे छे. आत्माने पुरुषार्थ करवामां कर्म वगेरे कोई पर पदार्थो रोकता नथी अने आत्मा पोतामां गमे
तेवो (सवळो के ऊंधो) पुरुषार्थ करे पण ते पर पदार्थोमां कांई करवा समर्थ नथी. जड पदार्थनी जे समये जे
अवस्था थवानी होय ते समये ते अवस्था स्वयं थया ज करे छे, ते वखते अनुकुळपणे हाजर रहेला पदार्थने निमित्त
कहेवाय, पण तेणे ते जडना कार्यमां किंचितमात्र कर्युं नथी. अहीं तो धर्मनी वात छे. प्रथम तो दरेक पदार्थनी
स्वतंत्रता छे ते समजवी जोईए. हवे जडनी अवस्था साथे तो आत्माना धर्मनो संबंध नथी. आत्माना धर्मनो
संबंध तेनी पोतानी पर्याय साथे छे. आत्माना स्वभावमां पुण्य–पापना विकारीभावो नथी, ते विकारीभावो
पुरुषार्थनी ऊंधाईथी पोते पर्यायमां नवा प्रगट करे छे, तेमां कर्मना उदयनुं कांई ज कार्य नथी. कर्मनो उदय जीवने
राग–द्वेष करावे–ए मान्यता मिथ्यात्व छे. कर्मो विकार करावे नहि अने पुरुषार्थनी नबळाईथी पर्यायमां विकार थाय
तेनाथी लाभ नथी, परमार्थे तो पुण्य–पापनो पण ज्ञाता ज छुं–एम आत्माना स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान करीने चैतन्य
स्वभावनो अनुभव करवो ते ज धर्म छे. अनंतकाळथी स्वतंत्र चैतन्यस्वभावनी रुचि अने प्रतीत करी नथी. ते
रुचि अने प्रतीत करीने आत्मामां सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते अपूर्व मंगळिक छे. ते ज प्रवचनमंडपना मंगळिक छे.
भगवानश्री कुंदकुंदाचार्यदेव भावप्राभृतनी ८३मी गाथामां कहे छे के– “जिनेन्द्रदेवोए जिनशासनमां एम
कह्युं छे के पूजादिकमां अने व्रतथी पुण्य छे तथा मोह अने क्षोभरहित एवो आत्मानो परिणाम ते धर्म छे.” दया–
व्रत–पूजादिना भाव ते जैन धर्म नथी पण राग छे–शुभबंध छे. जैन धर्म तो वीतरागतारूप छे, राग ते जैन धर्म
नथी. रागरहित स्वभावनी श्रद्धा, तेनुं ज्ञान अने तेमां ज रागरहित स्थिरता ते ज जैनदर्शन अर्थात् आत्मदर्शन
छे, ते ज मोक्षमार्ग छे. अने ते ज धर्म छे. एमां कोईनो पक्ष नथी; ए कोई वाडो नथी; ए कोई वेष नथी, ए
जडनी क्रिया नथी, अने रागादिकना शुभ–अशुभभावो पण नथी, ए तो मोह अने क्षोभरहित आत्माना ज शुद्ध
परिणाम छे.
पर जीवोने आ आत्मा कदी मारी के बचावी शकतो ज नथी. केम के सामा जीवो अने शरीरादि ए बधा
पदार्थो स्वयं अस्तिरूप छे अने तेओ स्वयं उत्पाद–व्यय–ध्रुव स्वभाववाळां छे, तेओ पोतपोतानां गुण–पर्यायोने
धरनारां छे. तेमना उत्पाद–व्यय कोई बीजो करी शके नहि. जीव तो मात्र पोतानी पर्यायमां शुभ के अशुभ भाव
करे. अने अज्ञानी ते भावनो कर्ता थाय छे, ज्ञानी तेना ज्ञाता रहे छे, पण तेने कर्तव्य मानता नथी. सम्यग्द्रष्टिओने
पण अशुभभावथी बचवा माटे व्रतादि शुभभाव होय छे, पण ते भावने तेओ राग समजे छे अने तेनाथी कल्याण
मानता नथी.
प्रश्नः–आत्मा शुभभाव करे पण परनुं कांई न करी शके–एम आप समजावो छो. परंतु एवुं समज्या पछी
पण व्यवहारमां तो परनां काम करवां पडे ने?
उत्तरः–परनुं करी ज शकतो नथी एवो स्वभाव ज छे पछी ‘करवुं पडे’ ए प्रश्नने अवकाश ज क्यां छे?
‘ससलानां शींगडां’ छे ज नहि पछी ते कापवानो प्रश्न ज क्यां छे? वस्तुना निश्चय व्यवहार तो वस्तुमां पोतामां ज
होय छे, कांई वस्तुथी बहार होता नथी. माटे व्यवहारमां आत्मा परनुं करी शके ए मान्यता पण मिथ्याद्रष्टिनी ज
छे. व्यवहारे आत्मा शुभभावे करे पण आत्माए शुभभाव कर्यो माटे बहारनी क्रिया थाय छे–एम नथी. पूजा
व्रतादिनो भाव पण परमार्थे हुं नथी–एवा भानपूर्वक ते शुभभावने व्यवहार कहेवाय छे. अने ए व्यवहार पण
करवा जेवो तो छे ज नहि. बहारनी क्रिया तो कदी करी शकतो ज नथी तेथी ते