Atmadharma magazine - Ank 042
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA With the permisson of the Baroda Govt. Regd. No. B. 4787
order No. 30-24 date 31-10-44
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‘सोनगढ जैसा वातावरण सारा हिंद में फैल जावे’
(सोनगढमां विद्वत्परिषदना त्रीजा अधिवेशन प्रसंगे चौराशी–मथुराथी पंडितश्री राजेन्द्रकुमारजी
न्यायाचार्य (प्रधानमंत्री अ. भा. दि. जैन संघ–मथुरा) पधार्या हता. सोनगढमां पू. सद्गुरुदेवश्रीना
व्याख्यानो तथा चर्चाओनो जे लाभ तेओने मळ्‌यो तेनुं वर्णन तेमणे पोताना भाषणमां घणा–घणा
उल्लासपूर्वक कर्युं हतुं. तेमना भाषणनो टूंकसार अहीं आपवामां आवे छे.)
हम महाराजश्री को अभिनंदन देते हैं, बहुमान पूर्वक स्वागत करते हैं; और यहां रहनेवाले सब भाई–
बहिनों का भी स्वागत करते हैं, महाराजश्री का आध्यात्मिक उपदेश सुनकर हमें बहुत हर्ष हुआ हैं, और
इससे हम रोमांचित हुए हैं।
सं। १९९६ में महाराजजी गीरनार यात्रा को गये थे और उस समय मैं भी वहां गया था; वहां पर मैंने
किसी स्थानकवासी भाई से पूछा कि ‘महाराज ने स्थानकवासी संप्रदाय कयों छोड दिया?’ तब उस भाई
ने कहा कि ‘महाराजश्रीने स्थानकवासी संप्रदाय से बना नहि इसलिये उसे छोड दिया।’ फिर मैंने पूछा कि
‘महाराजश्रीका उपदेश कैसा है?’ उत्तर मिला–‘निश्चय का!’ उस समय तो यह सुनकर मैं मध्यस्थ रहा,
किन्तु अब मैं समजता हूं कि–उनकी बात जुठ्ठ ही थी; वे लोगों से महाराजश्री का परिवर्तन सहन नहि हो
सका इससे द्वेष भाव से ही वे ऐसा बोल रहे थे। हमें मालुम हुआ है कि–महाराजश्री के उपदेशमें व्यवहार का
लोप नहि होता है, किन्तु निश्चय का उपदेश के साथ साथ व्यवहार भी बराबर आ जाता है। जो लोग एसा
बोलते हैं कि महाराज व्यवहार का निषेध करता है, वे लोग महाराजश्री का उपदेश को ही यथार्थ नहीं
समझते है इसलिये ही ऐसा बोल रहे हैं। हम द्रढता से कहते हैं कि–महाराजश्री निमित्त का निषेध नहीं करते
है। किन्तु उपादान और निमित्त यह दोनो पदार्थों की स्वतंत्रता को ही बराबर दिखाते हैं। स्वामीजी आज
दो हजार वर्ष के बाद भी श्री कुंदकुंद स्वामी के शास्त्रों का रहस्य प्रगट कर रहे हैं और हजारों लोगों को
सत्य धर्म में लगा रहे हैं–यह देखकर बडा हर्ष होता हैं। महाराजश्री के द्वारा दि० जैनधर्म का जो प्रचार हो
रहा है यह देखकर हमें गौरव हो रहा है।
मैं दो दिन से जो प्रश्न कर रहा था यह तो ‘महाराजश्री के भीतर में कितनी गहराई है’ यह जानने
के लिये जिज्ञासा भावसे ही पूछ रहा था, हम द्रढतापूर्वक कहते हैं कि स्वामीजी का उपदेश सुनकर हमारा
श्रद्धा–भेद हुआ है–बुद्धिभेद हुआ है–भक्तिभेद हुआ है। हम गद्गद् हृदय से कहते हैं कि स्वामीजी का उपदेश
हमें बहुत अच्छा लगता है, वे सत्य हैं। हम स्वामीजी के चरणों में श्रद्धांजलि देते हैं, श्रद्धा करते हैं। हम
सहृदय से कहते हैं कि सोनगढ जैसा वातावरण सारा हिंदुस्तान में फैल जावे और भारत के कौने कौने में
सब जगह फैल जावे। प्रत्येक प्रत्येक जीव यही धर्मको समझे ऐसी हमारी भावना है। हमारी अंतरभावना यह
हैं कि हम यहां पर ही रह जावे। इधर रहने वाला सब भाई–बहिनें बहुत भाग्यशाली है– जो निरंतर
महाराजश्री के उपदेश का लाभ उठा रहें हैं।
महाराजश्री का सत्संग में हमें बहुत लाभ हुआ है, हमारे देशमें जाकर हमारा मुखसे महाराजश्री की
प्रशंसा किये बिना हम नही रह सकेंगे। हम जरूर सब को कहेंगे, यहां की जिम्मेदारी अभी हमारे शिर आती
है। हम द्रढतापूर्वक कहते हैं कि महाराजजी का उपदेश यथार्थ है–परम सत्य है।
–इत्यादि घणा प्रकारे अत्यंत उल्लासपूर्वक तेमणे पू. गुरुदेवश्रीनी प्रशंसा करी हती।
(महावीर जन्म कल्याणक महोत्सव)
चैत्र सुद १३ ना रोज शासननायक देवाधिदेव भगवानश्री महावीर प्रभुना
पवित्र जन्म कल्याणकनो मंगळ महोत्सव समस्त जैन शासनमां ऊजवाशे.
मुद्रकः चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय, दास कुंज, मोटा आंकडिया, काठियावाड
प्रकाशकः श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, मोटा आंकडिया, ता. २प–३–४७