व्याख्यानो तथा चर्चाओनो जे लाभ तेओने मळ्यो तेनुं वर्णन तेमणे पोताना भाषणमां घणा–घणा
उल्लासपूर्वक कर्युं हतुं. तेमना भाषणनो टूंकसार अहीं आपवामां आवे छे.)
इससे हम रोमांचित हुए हैं।
ने कहा कि ‘महाराजश्रीने स्थानकवासी संप्रदाय से बना नहि इसलिये उसे छोड दिया।’ फिर मैंने पूछा कि
‘महाराजश्रीका उपदेश कैसा है?’ उत्तर मिला–‘निश्चय का!’ उस समय तो यह सुनकर मैं मध्यस्थ रहा,
किन्तु अब मैं समजता हूं कि–उनकी बात जुठ्ठ ही थी; वे लोगों से महाराजश्री का परिवर्तन सहन नहि हो
सका इससे द्वेष भाव से ही वे ऐसा बोल रहे थे। हमें मालुम हुआ है कि–महाराजश्री के उपदेशमें व्यवहार का
लोप नहि होता है, किन्तु निश्चय का उपदेश के साथ साथ व्यवहार भी बराबर आ जाता है। जो लोग एसा
बोलते हैं कि महाराज व्यवहार का निषेध करता है, वे लोग महाराजश्री का उपदेश को ही यथार्थ नहीं
समझते है इसलिये ही ऐसा बोल रहे हैं। हम द्रढता से कहते हैं कि–महाराजश्री निमित्त का निषेध नहीं करते
है। किन्तु उपादान और निमित्त यह दोनो पदार्थों की स्वतंत्रता को ही बराबर दिखाते हैं। स्वामीजी आज
दो हजार वर्ष के बाद भी श्री कुंदकुंद स्वामी के शास्त्रों का रहस्य प्रगट कर रहे हैं और हजारों लोगों को
सत्य धर्म में लगा रहे हैं–यह देखकर बडा हर्ष होता हैं। महाराजश्री के द्वारा दि० जैनधर्म का जो प्रचार हो
रहा है यह देखकर हमें गौरव हो रहा है।
श्रद्धा–भेद हुआ है–बुद्धिभेद हुआ है–भक्तिभेद हुआ है। हम गद्गद् हृदय से कहते हैं कि स्वामीजी का उपदेश
हमें बहुत अच्छा लगता है, वे सत्य हैं। हम स्वामीजी के चरणों में श्रद्धांजलि देते हैं, श्रद्धा करते हैं। हम
सहृदय से कहते हैं कि सोनगढ जैसा वातावरण सारा हिंदुस्तान में फैल जावे और भारत के कौने कौने में
सब जगह फैल जावे। प्रत्येक प्रत्येक जीव यही धर्मको समझे ऐसी हमारी भावना है। हमारी अंतरभावना यह
हैं कि हम यहां पर ही रह जावे। इधर रहने वाला सब भाई–बहिनें बहुत भाग्यशाली है– जो निरंतर
महाराजश्री के उपदेश का लाभ उठा रहें हैं।
है। हम द्रढतापूर्वक कहते हैं कि महाराजजी का उपदेश यथार्थ है–परम सत्य है।