Atmadharma magazine - Ank 043
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १४२ः आत्मधर्मः ४३
केवळज्ञान प्रगट कर्या पहेला पण तेओश्रीना जन्म कल्याणकना मांगलिक प्रसंगने अति अति भक्तिथी तेओ वधावे
छे. आ प्रकारनी स्तुतिमां भविष्यना गुणोने वर्तमान लक्षमां लईने स्तववामां आवे छे.
बीजी रीत एवी छे के गुणी पुरुषनी हैयाति बाद तेना गुणोनुं स्मरण करीने भक्ति व्यक्त करवामां आवे छे,
के जेथी भव्य जीवो गुणोनुं ज्ञान करीने पोतानुं अविनाशी हित साधी शके. आ प्रकारनी स्तुतिमां भूतकाळना गुणोने
वर्तमान लक्षमां लईने स्तववामां आवे छे.
त्रीजी रीत ए छे के संत पुरुषनी हैयातिमां ज तेमना गुणो प्रगट करीने स्तवन करवुं. अत्यारे आ रीत
घणी वीरल जोवामां आवे छे. भले वीरल हो, छतां पण ते सत्य छे एम जो तरी आवतुं होय तो ते स्तवनमां अति
गौरव छे. आपणे आपणा गुरुदेव प्रत्ये आवी भक्ति करीए. तेनी पुष्टि माटे अनुभवसहित दाखलाओ वर्णववामां
आवे छे–
आपणा गुरुदेवश्री पोतानी मधुर वाणीथी स्याद्वादनुं स्वरूप, उपादान–निमित्तनुं स्वरूप, क्रमबद्ध पर्याय,
पुण्यमां धर्म नथी तथा निश्चय–व्यवहार–आ बधा विषयोनो खुलासो शास्त्राधारे करीने एवी सरस अने सहेली रीते
भान करावे छे के आपणे तेनी तुलना करीए छीए त्यारे स्पष्ट समजी शकीए छीए के स्याद्वाद ते फूदडीवाद नथी,
उपादान–निमित्तनुं ज्ञान ते जड–चेतनना भेळसेळवाळुं नथी पण भेदज्ञान करावनारुं छे, क्रमबद्ध पर्यायनुं जे वर्णन
छे तेमां शिथिलतानी वात नथी पण पुरुषार्थनी फाट (फाटय) छे तथा ते शांतिने आपनार छे, पुण्यनी मीठाश ते तो
संसार छे अने स्वभावनी मीठाश ते मुक्तिनुं कारण छे, व्यवहार छे खरो पण तेनो निषेध करवा योग्य छे. आवा
परम तत्त्वज्ञानना फडचा थता जोईने मुमुक्षुओनां हृदयो भक्तिभावथी ऊछळी जाय छे, ने तेओश्रीना वर्तमान गुण
गावामां निःशंकता ने निडरता आवे छे.– आ छे आपणी गुरुस्तुति.
कोई सवाल करीने पोतानी शंकानुं समाधान मांगे त्यारे तेओश्रीनी उत्तर आपवानी रीत कोई जुदा ज
प्रकारनी छे. पहेलां तो शंकाकारनी शंकानुं स्पष्टीकरण करीने शंकाना अनेक स्थानो प्रगट करे छे, पछी तेना खुलासा
अनुभव–युक्ति अने शास्त्रना आधारोथी दाखला सहित एवा स्पष्ट करे छे के अंधकार टळी जाय छे ज्ञाननो प्रकाश
थाय छे अने तत्त्व प्रेममां रसबोळ थई जवाय छे.
सत्य संभळावतां एवी पण पक्कड नथी के हुं बीजाने समजावी दउं. सत्य सांभळता सामाने कदाच घडाको
लागे, खळभळाट थई आवे ने चमक लागे ते कारणे विरोधमां गमे तेवा उद्गारो सामेथी आवे तो पण ते
सांभळवामां तेओश्रीनी धीमाश अने धीरज होय छे. तेओ निःशंक छे के सत्य एक ज छे अने तेनो निर्णय पण एक
ज छे. साचाने नहि फरवुं पडे, खोटाने फरवुं पडशे ने सत्यनो स्वीकार करवो पडशे तेओश्रीनी सत्यनी आवी द्रढता
जोईने अंतरनो विरोध टळतां वार लागती नथी. शास्त्र वांचन अने नवा न्यायो काढवामां आत्मशक्तिनो विकास ज
जोवामां आवे छे, पण विरोधीओनो विरोध कांई डखल करतो जोवामां आवतो नथी.
कषायनो उपशम, कथन शैलिमां धीमाश, द्रढता, अंधकारनो उकेल ने पुरुषार्थ ए तो तेमनी मुखमूद्रा उपर
प्रगटपणे तरवरी आवे छे. तेमनी वाणी वडे आत्मस्वरूप सांभळता मुमुक्षुओ अध्यात्म रसमां तरबोळ थाय छे.
आवा गुणनो साक्षात्कार जोतां तेओश्री प्रत्ये भक्ति उछळी आवे छे. सत्य त्रिकाळ छे, अनादि अनंत छे.
व्यक्ति विशेष माटे आदि–मध्य–अंत छे, तेथी पोते सत्य समजीने ते सत्यनो अने तेना समजावनारनो महिमा गमे
त्यारे व्यक्त करी शके छे–ए वात निःशंक छे...
* * * * * *
धर्मकाळ अहो वर्ते, फरीने आ भरतमां,
‘कुंद शिष्य’ जहां गर्जे, धोरी धर्म प्रवर्तका.
पणा पूज्य गुरुदेवश्रीना पुनित प्रतापे भरत भरमां परम सत्य जिनधर्मनो आजे महान उद्योत थई
रह्यो छे...वर्षोथी छिन्न–भिन्न थई रहेलुं जिनशासन आजे फरीथी उन्नत्तिना मार्गे पोतानो विजय ध्वज फरकावी
रह्युं छे. जे भूमिमां सत्यधर्मनुं लगभग नाम निशान पण न हतुं ते भूमिमां आजे सत्यधर्मना उपासक हजारो
आत्मार्थिओ तैयार थया छे; जे भूमिमां वीतरागीजिनदेवना दर्शन पण दुर्लभ हता त्यां आजे अनेक वीतरागी
जिनमंदिरो थवा मांडया छे. अने जे भूमिमां सत्शास्त्रनुं नाम पण भाग्ये ज संभळातुं ते भूमिमां आजे तो घेर घेर
बाळको पण सत्शास्त्रनो स्वाध्याय अने तत्त्वचर्चा करता थया छे. वळी धर्मात्माओनां साक्षात् दर्शन अने सेवा
करवानुं महाभाग्य