थाय छे, अग्निनो ताप आपतां आपतां सुवर्ण शुद्ध थतुं जाय छे. ए द्रष्टांतोथी बोधपाठ मळे छे के संसारमां आधि,
व्याधि, उपाधिरूप त्रिविध ताप होवा छतां जे पोताना आत्ममंदिरमां समयसारनी प्रतिष्ठा करे छे अर्थात् आत्माना
शुद्ध स्वरूपने ओळखी, तेमां स्थिरता करे छे ते पोताना शुद्ध स्वरूपमां विकास पामे छे; ताप तेमां किंचित् मात्र
विघ्न करी शकतो नथी.
भक्ति के जे शुभभाव छे–विकार छे तेनी पण प्रतिष्ठा करे नहि; ज्ञान दर्शनादि गुणोना ऊणा पर्यायनी प्रतिष्ठा पण
करे नहि. आ रीते ते सर्व संयोगी पदार्थो, विकारी शुभाशुभ भावो के अपूर्ण निर्मळ पर्यायनी क्यारेय पण प्रतिष्ठा
करे नहि; ते मात्र एक परम पारिणामिक स्वभाव भावनी ज प्रतिष्ठा करे.
सम्यग्ज्ञाननुं कारण थाय नहि. ज्यारे ते पर उपरनुं लक्ष छोडीने ज्ञानने स्वसन्मुख वाळे त्यारे ज सम्यग्ज्ञान थाय छे.
एटले के सम्यग्ज्ञान स्वसन्मुखपणे थाय छे अने पछी पण स्वसन्मुख वलण वडे सम्यक्ज्ञाननो विशेष विकास
थाय छे. पण पर तरफना वलण वडे सम्यग्ज्ञाननो विकास थतो नथी.
छे. वळी ‘हुं परने सुखी करूं’ एम माने छे परंतु पर जीव सुखी तो तेना भावथी ज थाय छे–एम यथार्थ ज्ञान करे
तो शुभभाव होवा छतां ज्ञानावरणीय बंधाय छे, अने अज्ञानदशा वधती जाय छे.
ज्ञान एकाग्र थाय त्यारे मिथ्या ज्ञानदशा छे; स्व तरफनुं ज्ञान होवा छतां जेटले अंशे पर तरफ उपयोग एकाग्र थाय
तेटले अंशे ज्ञाननुं परिणमनहीणुं छे–ते साधकदशा छे, त्यां ज्ञान सम्यक् छे पण अपूर्ण छे. अने ज्ञान ज्यारे संपूर्ण
स्वसन्मुख थईने स्वभावमां संपूर्ण एकाग्र थाय त्यारे तेनुं परिणमन परिपूर्ण थईने केवळज्ञान थाय छे. एटले
कहेवानो आशय ए छे के पर तरफना वलण वडे ज्ञाननो विकास थाय नहि अने ज्ञानावरण कर्मनो नाश थई शके
नहि, पण स्वभाव तरफना वलण वडे ज्ञाननो विकास थाय अने ज्ञानावरण कर्मनो नाश थाय छे.
भवनिवृत्तिरूप करनार कल्याणमूर्ति श्री सम्यग्दर्शनने नमस्कार” (श्रीमद् राजचंद्र) एटले के सम्यग्दर्शन वगर
११ अंग ने ९ पूर्व भण्यो होय तोपण तेनुं ते ज्ञान भवनुं कारण छे, ‘अने सम्यग्दर्शन थतां ‘मास, तुष