Atmadharma magazine - Ank 043
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १२२ः आत्मधर्मः ४३
वर्ष चोथुंसळंग अंकवैशाखआत्मधर्म
अंक सात४३र४७३
समयसार प्रतिष्ठा
वैशाख वद ८ एटले श्री स्वाध्याय मंदिर सोनगढमां समयसार प्रतिष्ठा दिन
(श्री खीमचंद जेठालाल शेठ)
तापथी जीवन करमाई जाय एम कोण कहे छे? उनाळाना धोम तडका पडी रह्या छे त्यारे आजुबाजुनां
वृक्षो उपर द्रष्टि करीशुं तो ते नवपल्लवित थयेलां देखाशे. सखत ताप होवा छतां वृक्षो करमातां नथी पण विकसित
थाय छे, अग्निनो ताप आपतां आपतां सुवर्ण शुद्ध थतुं जाय छे. ए द्रष्टांतोथी बोधपाठ मळे छे के संसारमां आधि,
व्याधि, उपाधिरूप त्रिविध ताप होवा छतां जे पोताना आत्ममंदिरमां समयसारनी प्रतिष्ठा करे छे अर्थात् आत्माना
शुद्ध स्वरूपने ओळखी, तेमां स्थिरता करे छे ते पोताना शुद्ध स्वरूपमां विकास पामे छे; ताप तेमां किंचित् मात्र
विघ्न करी शकतो नथी.
अहो समयसार! अंतरमां तारी प्रतिष्ठा करनार जडनी–शारीरिक निरोगता, लक्ष्मी, कुटुंब, कीर्ति इत्यादिनी–
प्रतिष्ठा क्यारेय पण थवा दे नहि; अरे! देव–गुरु–शास्त्र के जे पर छे तेनी पण प्रतिष्ठा करे नहि; दया, दान, पूजा,
भक्ति के जे शुभभाव छे–विकार छे तेनी पण प्रतिष्ठा करे नहि; ज्ञान दर्शनादि गुणोना ऊणा पर्यायनी प्रतिष्ठा पण
करे नहि. आ रीते ते सर्व संयोगी पदार्थो, विकारी शुभाशुभ भावो के अपूर्ण निर्मळ पर्यायनी क्यारेय पण प्रतिष्ठा
करे नहि; ते मात्र एक परम पारिणामिक स्वभाव भावनी ज प्रतिष्ठा करे.
दरेक मुमुक्षु पोताना आत्ममंदिरमां समयसारनी आवी प्रतिष्ठा मात्र एक वैशाख वद ८ ना दिवसे ज नहि
पण जीवननी प्रत्येक क्षणे करो–ए भावना...
* * * * *
सम्यग्दर्शननो अपरंपार महिमा – समयसार प्रवचनना आधारे
(१) मात्र सत्देव–गुरु–शास्त्र उपरना लक्षे ज्ञाननो क्षयोपशम जो के वधे छे, पण ते सम्यग्ज्ञान नथी. देव–
गुरु–शास्त्र वगेरे तो परद्रव्य छे तेना लक्षे कषायमंद पाडतां ज्ञाननो जे क्षयोपशम थाय छे ते ज्ञान आत्माना
सम्यग्ज्ञाननुं कारण थाय नहि. ज्यारे ते पर उपरनुं लक्ष छोडीने ज्ञानने स्वसन्मुख वाळे त्यारे ज सम्यग्ज्ञान थाय छे.
एटले के सम्यग्ज्ञान स्वसन्मुखपणे थाय छे अने पछी पण स्वसन्मुख वलण वडे सम्यक्ज्ञाननो विशेष विकास
थाय छे. पण पर तरफना वलण वडे सम्यग्ज्ञाननो विकास थतो नथी.
(२) ज्ञाननुं कार्य स्व–परने जेम छे तेम जाणवानुं छे. पर जीवने दुःख थाय छे अने पोताने तीव्र कषाय
भाव छे, तेने जाणवानी दरकार कर्या वगर परने दुःख देवाना भावरूप तीव्र कषाय करे तेने तीव्र ज्ञानावरणीय बंधाय
छे. वळी ‘हुं परने सुखी करूं’ एम माने छे परंतु पर जीव सुखी तो तेना भावथी ज थाय छे–एम यथार्थ ज्ञान करे
तो
शुभभाव होवा छतां ज्ञानावरणीय बंधाय छे, अने अज्ञानदशा वधती जाय छे.
(३) ज्ञाननुं यथार्थ कार्य स्वसन्मुख थईने आत्मस्वभावमां एकाग्र थवानुं छे, तेने बदले जेटले अंशे ज्ञान
स्वने चूकीने परमां रोकाय तेटले अंशे ज्ञानावरणीय कर्म बंधाय छे. ज्यारे स्वने तद्न चूकीने एकला पर तरफ ज
ज्ञान एकाग्र थाय त्यारे मिथ्या ज्ञानदशा छे; स्व तरफनुं ज्ञान होवा छतां जेटले अंशे पर तरफ उपयोग एकाग्र थाय
तेटले अंशे ज्ञाननुं परिणमनहीणुं छे–ते साधकदशा छे, त्यां ज्ञान सम्यक् छे पण अपूर्ण छे. अने ज्ञान ज्यारे संपूर्ण
स्वसन्मुख थईने स्वभावमां संपूर्ण एकाग्र थाय त्यारे तेनुं परिणमन परिपूर्ण थईने केवळज्ञान थाय छे. एटले
कहेवानो आशय ए छे के पर तरफना वलण वडे ज्ञाननो विकास थाय नहि अने ज्ञानावरण कर्मनो नाश थई शके
नहि, पण स्वभाव तरफना वलण वडे ज्ञाननो विकास थाय अने ज्ञानावरण कर्मनो नाश थाय छे.
(४) ज्ञाननुं फळ तो स्वसन्मुखपणे स्वभावनी एकता करवी ते ज छे; ते सिवायनुं ज्ञान भाररूप छे अथवा
तो ते संसारनुं कारण छे. “अनंतकाळथी जे ज्ञान भवहेतु थतुं हतुं ते ज्ञानने एक समयमां जाति अंतर करीने
भवनिवृत्तिरूप करनार कल्याणमूर्ति श्री सम्यग्दर्शनने नमस्कार”
(श्रीमद् राजचंद्र) एटले के सम्यग्दर्शन वगर
११ अंग ने ९ पूर्व भण्यो होय तोपण तेनुं ते ज्ञान भवनुं कारण छे, ‘अने सम्यग्दर्शन थतां ‘मास, तुष
शब्दनुं
ज्ञान न होवा छतां तेनुं ज्ञान भवनिवृत्तिरूप छे. अहा! जुओ, सम्यग्दर्शननो अपरंपार महिमा!