स्थिति छे परंतु कोई एक बीजामां मळी जतां नथी. एवो ज अनादि व्यवहार छे के कोई
द्रव्य अन्य द्रव्य साथे मळी जतुं नथी, कोईना गुण अन्यना गुण साथे मळी जता नथी,
कोईनी पर्याय अन्यनी पर्याय साथे मळी जती नथी. आवी उदासीन वृत्ति छे.
(अहीं वीतरागी–मुनिओना द्रष्टांतथी वस्तुनो निरपेक्ष स्वभाव समजाव्यो छे. जेम एक
गूफामां रहेला छ वीतरागी मुनिओ पोत–पोताना स्वरूप साधनमां ज लीन छे, कोईने
कोई उपर मोह नथी, बीजा मुनि शुं करे छे के तेमनुं शुं थाय छे तेनुं लक्ष नथी. कोईने
आहारनी वृत्ति ऊठे अने आहार लेवा चाल्या जाय, पण बीजा मुनिओ अप्रमत्तदशामां
लीन होय तेमने तेनुं लक्ष पण न होय. कोईने सिंह फाडी खाता होय पण अन्य मुनिओने
ते तरफनो कांई विकल्प न होय. ए रीते ते वीतरागी मुनिओ एक बीजाथी निरपेक्षपणे
स्वरूप साधनमां ज लीन छे. तेम आ लोकरूपी गुफामां छए द्रव्यो वीतरागी मुनिओनी
माफक एक बीजाथी निरपेक्षपणे रहेलां छे. कोई द्रव्य अन्य द्रव्यनी अपेक्षा राखतुं नथी,
बधा द्रव्यो पोत–पोताना गुण–पर्यायमां ज रहेलां छे.)
आ जीव द्रव्य ज्ञानस्वरूप देखवा–जाणवारूप छे तेने तुं देख. ते अनादिकाळना परद्रव्य प्रत्येना मोहथी, परमां ममत्व
भाव धारीने, पोताना स्वभावने भूलीने, परद्रव्यने पोतानुं इष्ट जाणीने पररूपे पोताने मानी रह्यो छे. पोते तो
अमूर्तिक छे ते भूलीने पोताने मूर्तिक जडभावरूप मानी रह्यो छे, परंतु पोते जड थई गयो नथी; पोते पोताना
चेतनाना व्यवहारने कदी छोडतो नथी.
जीवो तेने सिंह जाणीने भयभीत थाय छे; परंतु ते (मनुष्य) सिंह नथी. लोभने वशीभूत थइने ते नटे पोतानुं रूप
पशुनुं बनाव्युं छे अने पोते पोताने पशु मानीने पशु जेवी प्रवृत्ति करे छे, परंतु ते पशु नथी, मनुष्य ज छे. तेम आ
संसारी जीव पोतानी अनादि भूलथी जे गतिमां गयो ते ज गतिरूप पोताने मानीने रह्यो. चारे गतिनां अनेक
पौद्गलिक शरीर धारण करीने पोताने देव–नारकादि आकारे मान्यो. ‘हुं देव छुं, हुं नारकी छुं, हुं पशु छुं, हुं मनुष्य
छुं, हुं आ संयोगथी सुखी छुं, हुं आ संयोगथी दुःखी छुं, आ धनधान्य कुटुंबी वगेरे मारां छे, हुं मोटा शरीरवाळो
छुं–ए प्रकारे पोताने कर्मनिमित्तथी जड समान, पौद्गलिक शरीरमां रहेनार, अचेतननी चेष्टारूप मानवा लाग्यो,
परंतु त्यां पण पोतानो खास देखवा–जाणवारूप चैतन्यभाव तो छूटतो नथी; पोते तो जीव ज छे. (द्रष्टांतमां पशुनो
स्वांग लीधो छे. जे अज्ञानी पोताने जडरूपे–पररूपे माने छे ते पशु समान अविवेकी छे.) जेम ते नट सिंहनुं चामडुं
छोडीने सिंहना स्वांगथी दूर थयो त्यारे सर्वेनो भ्रम टळ्यो, बधा तेने नर मानवा लाग्या, ते पण नर ज रह्यो अने
पहेलां पण नर ज हतो, मात्र भ्रमथी सिंह मान्यो हतो. तेम शरीररूपी खोळियाथी भिन्न जाण्यो–मान्यो त्यारे शुद्ध
आत्मा थयो. एवुं जीव अजीवनुं स्वरूप छे, ते हे भव्य! तुं निश्चय करीने जाण.